आचार्य विद्यासागर महाराज तप, ज्ञान, संयम और करुणा की प्रतिमूर्ति

आचार्य विद्यासागर महाराज

उनके विचारों को अपना कर लाखों लोगों ने पाया सुख

जयपुर। संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज आध्यात्मिक क्षितिज पर आधी सदी तक छाए रहे। उनके स्मरण मात्र से तप, ज्ञान, संयम, आराधना और करूणा की प्रतिमूर्ति के दर्शन हो जाते हैं। आचार्य विद्यासागर महाराज ने अपना समूचा जीवन समाज और देश को प्रगति की दिशाओं की ओर अग्रसर करने मेंं बिता दिया। हमेशा भटके लोगों को राह दिखाई। उनके विचारों को अपना कर लाखों लोगों ने सुख हासिल किया और समस्याओं से छुटकारा पाया।

मुनि आचार्य विद्यासागर जी अनूठे व्यक्तित्व के धनी थे। वह एक संत के रूप मेंं धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के वाहक थे। वह 22 वर्ष की आयु में संन्यास के पथ पर चलकर तप, ज्ञान, संयम, आराधना और करूणा की प्रतिमूर्ति के रूप में प्रख्यात हुए। काल के प्रवाह में 77 साल बहुत ज्यादा मायने नहीं रखते लेकिन आचार्य विद्यासागर जी ने इस अवधि में उद्देश्यपूर्ण जीवन जीकर जो उपलब्धियां एवं ऊंचाइयां हासिल की हैं, उनसे उनके विराट व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं।

आचार्य विद्यासागर महाराज
आचार्य विद्यासागर महाराज

उनके विचारों से समूची मानवता को हमेशा कोई न कोई शिक्षा मिली है, सदैव कोई न कोई मार्ग प्रशस्त हुआ है और उनके विचार हमेशा किसी न किसी समस्या का समाधान बनकर प्रकट हुए हैं। लाखों लोगों को उनके विचारों से जीने की नई राह मिली, समस्याओं के समाधान का तरीका मिला और यह पता चला कि तनाव रहित एवं सुखमय जीवन किस प्रकार जिया जाए।

शरद पूर्णिमा के पावन मौके पर 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक प्रांत के बेलगांव जिले के सदलगा गांव में जन्मे आचार्य श्री का समूचा जीवन सादगी का प्रतीक रहा है। 22 साल की उम्र में उन्होंने घर-परिवार का त्याग कर 30 जून 1968 को अजमेर में आचार्य श्रीज्ञानसागर जी महाराज से दीक्षा ली और दुनिया को राह दिखाने निकल पड़े। उन्होंने दीक्षा लेने के साथ ही कठोर तपस्या का दामन थाम लिया। उन्होंने संन्यास लेते ही दूध, दही, हरी सब्जियां और सूखे मेवों का त्याग कर दिया। यहां तक कि वह पानी भी पूरे दिन में केवल एक बार अंजुलि भरकर ही पीते थे। हमेशा सीमित मात्रा में सादी दाल और रोटी का सेवन किया। उन्होंने पूरे देश का भ्रमण पैदल ही किया। उनकी कठोर तपस्या को देखकर आचार्यश्री ज्ञानसागर महाराज ने उन्हें अपने आचार्य का दायित्व सौंपा। वह ऐसे मुनि थे, जिनके परिवार के सभी सदस्य संन्यास ले चुके हैं।

आचार्य विद्यासागर महाराज
आचार्य विद्यासागर महाराज

वह एक महान विद्वान थे। उन्होंने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए कई देशों की यात्रा की। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, मराठी और कन्नड़ में विशेषज्ञ स्तर का ज्ञान रखने वाले आचार्य श्री ने जैन धर्म के दर्शन और सिद्धांतों पर कई पुस्तकें लिखीं। आचार्य श्री की प्रमुख रचनाओं मेंं निरंजना शतक, भावना शतक, परीषह जाया शतक, सुनीति शतक, शरमाना शतक और काव्य मूक माटी शामिल है। उनके काव्य मूक माटी को विभिन्न शिक्षण संस्थानों में स्नातकोत्तर के हिन्दी पाठ्यक्रम में पढकऱ हजारों बच्चे लाभान्वित होते हैं।

बेहद सादा जीवन जीने के पक्षधर आचार्य श्री ने जीवन में सादगी को महत्व दिया। वह ऐसे मुनि थे, जिन्होंने कभी किसी से पैसा नहीं लिया। वे धन संचय के सख्त विरोधी थे। उन्होंने न कोई ट्रस्ट बनाया, न दान-दक्षिणा मेंं किसी से धन लिया और ही किसी बैंक में उनका खाता था। उन्होंने कभी पैसे को छूना तक उचित नहीं समझा। जब कभी किसी श्रद्धालु ने उनके नाम पर दान देने की बात कही तो आचार्य श्री ने समाजसेवा के कामों मेंं लगाने पर जोर दिया।

आचार्य श्री हमेशा कोई न कोई सीख देते थे। उनके मुखारबिंद से जब भी कोई वाक्य प्रस्फुटित होता, हमेशा उसमें कोई संदेश निहित होता था। वह अक्सर कहते थे कि बड़े बनने की होड़ में मत पड़ो। लघु बनना सीख लो क्योंकि लघु बने बिना विराटता का अनुभव नहीं मिल सकता है। वह अनुभव पर बहुत जोर देते थे। वह कहते थे कि अनुभव ही जीवन मेंं काम आने वाला है। केवल किताबी ज्ञान के सहारे उपलब्धियां हासिल नहीं की जा सकती हैं।

उन्होंने हमेशा ईष्र्या, क्रोध और लालच से दूर रहने की प्रेरणा दी। वह कहते थे-ईष्र्या अंतरात्मा को खा जाती है, लालच हमारे ईमान को और क्रोध हमारी बुद्धि को खा जाता है। जिस प्रकार कोई कीड़ा कपड़ों को कुतर देता है, उसी प्रकार ईष्र्या इंसान को बर्बाद कर सकती है। गुस्सा मूर्खता से शुरू होता है और पछतावे पर खत्म होता है। आचार्यश्री ने हमेशा भलाई का संदेश दिया। वह कहते थे-दूसरों की भलाई के लिए अपने सुख का त्याग करना ही सच्ची सेवा है।

आचार्य श्री का जीवन हमेशा जिज्ञासा का केन्द्र रहा है। सौ से अधिक शोधार्थियों ने उनके कार्य का मास्टर्स और डॉक्ट्रेट के लिए अध्ययन किया है। उन्होंने अनेक गरीब और वंचित बच्चों को शिक्षा प्रदान की। महिला शिक्षा को बढ़ावा दिया, गरीबों से लेकर जेल के कैदियों तक के लिए काम किया। उन्होंने अपना जीवन शिक्षा, समाज सुधार, धार्मिक ज्ञान के प्रसार एवं जन कल्याण के लिए समर्पित कर दिया। 17 फरवरी 2024 की मध्यरात्रि को छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ के चन्द्रगिरि तीर्थ में मुनि श्री ने अपना शरीर त्याग दिया और ज्योति ज्योत समा गए। वह भौतिक रूप से इस संसार मेंं नहीं हैं लेकिन उनके महान विचार प्रेरणापुंज के रूप मेंं विद्यमान हैं। आचार्य श्री को समाज में उनके अमूल्य योगदान के लिए याद रखा जाएगा। आध्यात्मिक जागृति के लिए उन्होंने जो प्रयास किए और गरीबी उन्मूलन, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा के लिए जो काम किए, वह अविस्मरणीय रहेंगे। लोगों में आध्यात्मिक जागृति के लिए उनके बहुमूल्य प्रयास सदैव याद किए जाएंगे।

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