
अतुल सभरवाल की ‘क्लास ऑफ 83 में दोस्ती, पश्चाताप, संगठित अपराध के बदलते स्वरूप, सत्ता-सिस्टम-अपराधियों के गठजोड़ की ‘क्लास लगाई गई है। यह आठवें दशक की मुंबई, नासिक और दुबई में सेट है। उन चंद कर्मठ और ईमानदार पुलिस वालों की कहानी है, जिन्हें शहर को भ्रष्ट मंत्रियों, खुद अपने भ्रष्ट पुलिस विभाग और गैंगस्टर के शिकंजे से बचाना है। खासकर उस पुलिस अफसर विजय सिंह पर पूरा दारोमदार है, जिसे सीएम मनोहर पाटकर ने पनिशमेंट पोस्टिंग दी हुई है। नासिक पुलिस ट्रेनिंग सेंटर में युवाओं को लॉ और ऑर्डर की किताबी और किताब से बाहर की दुनिया के घटनाक्रमों से अपने शहर और राज्य को बचाना है।

ऐसी है फिल्म की कहानी
विजय सिंह उस सेंटर से प्रमोद शुक्ला(भूपेंद्र जड़ावत), असलम खान(समीर परांजये), विष्णु वर्दे (हितेश भोजराज), जर्नादन सुर्वे(पृथ्विक प्रताप), और लक्ष्मण(निनाद महाजनी), जाधव के रूप में पांच ‘पांडवों की सेना तैयार करता है। शहर के गैंगस्टरों का ऑफ द रिकॉर्ड सफाया करवाता है। ट्रेनिंग सेंटर तक पांचों ‘पांडवों की दोस्ती अक्षुण्ण रहती है। पर जॉब में फील्ड पर आने पर दरारें आने लगती हैं। अपने अपने कैंप के गैंगस्टर्स का सपोर्ट करने लगते हैं। फिर शहर गैंगस्टरों के चंगुल से आजाद हो पाता है कि नहीं फिल्म उस बारे में है।
सभी सब्जेक्ट के साथ न्याय नहीं कर पाई फिल्म
फिल्म मशहूर क्राइम रायटर एस हुसैन जैदी की किताब पर बेस्ड है। उसे एडेप्ट करने से कहानी बहुपरतीय हुई है। मगर सभी परतों में जाने से फिल्म जरा सी चूकती है। बॉम्बे में तब के हालात, पंजाब में टेरेरिज्म, कॉटन मिल्स की बंदी, मजदूरों का मजबूरन अपराध में आने से लेकर कई अन्य मसलों के बीच तालमेल में कमी रहती है। इसकी वजह फिल्म की लंबाई है। वह बहुत कम है। नतीजतन सभी मुद्दों के साथ पूरा न्याय नहीं हो पाया है।
बॉबी देओल ने सोलो लीड से संभाली फिल्म
फिर भी अतुल सभरवाल ने कलाकारों की सधी हुई अदाकारी से घटनाक्रम को एंगेजिंग बनाया है। बॉबी देओल बतौर सोलो हीरो जंचे हैं। जो पांच ‘पांडव हैं, वो सारे कलाकार इस फिल्म की शान हैं। अपनी डेब्यू फिल्म में ही जो सधी हुई परफॉरमेंस दी है, वैसी की उम्मीद कम से कम आधा दर्जन फिल्मों के बाद लगाई जाती है। ट्रेनिंग सेंटर में लड़कपन और नौकरी वाले फेज में खुदगर्जी और जुनून को बखूबी पेश किया है।
डायलॉग्स में दिखा दम
डायलॉग में पैनापन है। ‘जहां बारूद न चले वहां दीमक की तरह काम करना पड़ता है, विजय सिंह का लंबा डायलॉग, ‘हर बॉडी का इम्यून सिस्टम होता है, गवर्नमेंट बॉडी, एजुकेशनल बॉडी, जूडिशियल बॉडी, ये सब मजबूत किले हैं। इनका इम्यून सिस्टम इतना सख्त होता है कि इन्हें बाहर की मार से हिलाया नहीं जा सकता, इन्हें अंदर से बीमारी की तरह सड़ाना पड़ता है।
पुराने बॉम्बे की झलक देती है फिल्म
परतदार कहानियां पसंद करने वालों को यह अतुल सभरवाल की डीसेंट सौगात है। ब्लैक एंड ह्वाइट एरा वाली मुंबई की खूबसूरती आंखों को अच्छी लगती है। एक एलिगेंस नजर आता है पूरी फिल्म में। बैकग्राउंड स्कोर फिल्म के मिजाज से पूरा मैच करता है।