राक्षसियत

सवाल फिर खड़ा हो गया कि हम क्या हैं। पूरक सवाल ये कि हमारी जानवरियत और कितनी दूर जाएगी। सवाल-दर-सवाल खड़े होते रहेंगे। पूरक सवाल भी बनेंगे-बिगडेंगे। जवाब शायद किसी के पास नहीं। जिन के पास हैं, उनकी कोई सुनता नहीं। उसी का नतीजा है कि हमारी मूल नस्ल पर आंच आती जा रही है, हालात यही रहे तो इंसान और इंसानियत ढूंढते रहे जाओगे। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

सवाल उभरना अथवा सवाल खड़े करना नई बात नही है। नए मेहमान के दुनिया में आने से लेकर किसी के राम प्यारा होने के सफर में सवाल ही सवाल। कई बार तो दुनिया से विदाई के बाद भी सवाल रह जाते हैं। हथाईबाज इससे पहले भी इन पर चर्चा कर चुके हैं, कई सवाल ऐसे भी हैं जिन्हें सुलझाने के कितने ही प्रयास करो-कहीं ना कहीं इफ-बट रह ही जाता है। इसके पीछे कुछ कारण हो सकते हैं। हो सकता है-उलझन सुलझाने के प्रयासों में कोई कमी रह गई हो। कौन माथाफोड़ी करे वाला जुमला भी सवाल का जवाब ढूंढने में आड़े आ जाता है। समस्या का हल खोज कर पुरखों को क्या मिला जो अपन को मिल जाएगा.. वाली सोच भी किसी समस्या का स्थायी समाधान खोजने में बाधक। सबसे बड़ा लोचा-‘यहां तो यूं ही चलेगा वाला टोटका।

कई बार मन में विचार आता है कि जब महान और महानतम विभूतियां हमें रास्ते पे ना ला पाई, अब तो उनकी खेप ही खलास प्राय हो रही है। भारत आजाद हुआ जब हम कितने थे। भारतीय कितने थे। भारतवासी कितने थे। शायद चालीस-पैंतालीस करोड़। खींचताण के पचास-पचपन करोड़ और देश में नामचीन हस्तिएं भी अगणित थी। एक से बढ कर एक, आले से आले विद्वान। यूं समझ लो कि हम मुट्ठी भर लोग थे और हस्तियां ज्यादा। वो ज्ञानी-ध्यानी-विद्वानी हम मुट्ठी भर लोगों को लाइन पे नही ला सके। अब हालात उलटे। हम डेढ सौ करोड़ की ओर बढ रहे हैं और ज्ञानी-ध्यानी अंगुलियों पे गिने जित्ते। सुधरने की कोई गुंजाइश भी नही मगर आशावादी हैं कि हम हमारे मूल रूप-स्वरूप की तरफ एक दिन वापस लौटेंगे। माना कि दुनिया में कमीनों की संख्या दिन-ब-दिन बढ रही है मगर कहीं ना कहीं इंसानियत बची है तभी तो दुनिया कायम है वरना कयामत आ जाए।

कई लोग सोच रहे होंगे कि चासेबाजों को आज क्या हो गया, जो इतना सीरियस हो गए। चासे अपनी जगह है और गंभीर मसलों पे गंभीर चर्चा अपने स्थान पर। ऐसा नहीं कि हथाईयों पर सिर्फ हमाली-धमाली-कमाली होती रही है। वहां जैसी चर्चा होती है और समस्या का समाधान खोजा जाता है वैसी चर्चा और वैसी गंभीरता सदनों में नजर नही आती, जबकि सदनों और सदन में विराजने वाले माननीयों को धीरता-गंभीरता दिखाने की जरूरत रहती है।
आप लोगों ने ‘जानवरियत पर गौर नही किया होगा। किसी ने किया भी होगा तो रूटीन में बांच लिया और मामला नक्की। हमारा काम लिखना-आप का बांचणा। खेल खतम-पईसा हजम। ऐसा नही है। ऐसा होना भी नही चाहिए।

हथाईबाजों ने ‘जानवरियत का उपयोग-प्रयोग किया हैं तो इसके पीछे जरूर कोई गंभीर बात होगी वरना हम-आप ठहरे इंसानियत के पुजारी। इंसानियत हमारा गहना। इंसानियत हमारा पैगाम। इंसानियत हमारा कर्म। भगवान ने हमें इंसान बनाया। हम इंसान के रूप में पैदा हुए। हमने इंसान की योनि में जनम लिया। करोड़ों-करोड़ योनियों का फेरा लगाने के बाद मनुष्य योनि मिलती है। मानव-मनुष्य-इंसान को जीवों का सरताज कहा जाता है। ऐसे में ‘जानवरियत के उपयोग पर हैरत होना लाजिमी है।

इंसान को जानवर कहना किसी का शौक नहीं। आदमी जब आदमियत छोड़कर जानवरों जैसी हरकत करने पे उतर जाए तो वह आदमी कहलाने का हक छोड़ देता है। उसे इंसान कहलाने का कोई हक नहीं। दूध मुंही बच्चे से मुंंह काला करना कौन से आदमी का काम है। बहन-बेटियों और यहां तक कि उम्रदराज महिलाओं के साथ दुष्कर्म कर डालना किस मनुष्य का काम है। घर-समाज-देश के प्रति फर्ज से मुंह मोडऩा कहां की शिक्षा है। खुदगर्जी में आकंठ डूबे रहने की सीख कहां से आई।

जयपुर के एक निजी अस्पताल के आईसीयू में भर्ती एक मजबूर-बेबस महिला के साथ वही के एक नर्सिंग कर्मी द्वारा अश्लील हरकते करना किसी इंसान का काम नही हो सकता। यह ‘जानवरियत है। यह वहशीपन है। राक्षसियत है। इंसान की खाल में छुपे ऐसे भेडियों के साथ वैसा ही सलूक किया जाना चाहिए जैसा किसी पागल जानवर के साथ किया जाता है।

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