
आखिर वही हुआ, जिसकी संभावना पहले ही जता दी गई थी। ये तो नगर निगम के चुनाव थे, सियासी वैज्ञानिक विधानसभा से लेकर लोकसभा चुनावों के दौरान हवा का रूख देख कर बता चुके हैं कि किस की ‘ताकड़ी में कितना दम है। चुनावों के दौरान दावे होते हैं-ताल ठोकी जाती है। पट्ठ पीटे जाते हैं। जित्ते लोग चुनाव लड़ते हैं वो सभी अपनी-अपनी जीत के दावे करते हैं। कोई यह नहीं कहता कि अपनी हार तय है। पर जीतता वही है जिस को जनता का समर्थन प्राप्त होता है। क्यूंकि यह चुनाव गली-गुवाड़ी स्तर के थे, लिहाजा मतदाता मंडिएं भी सजी। इसके बावजूद कहा तो यही जाएगा कि जनता का फैसला सर्वोपरि है। हमारा यह कहना कि जीत पे इतराना नहीं-हार से घबराना नहीं। शहर की लगभग सभी हथाइयों पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
हथाईबाजों ने चुनाव तो देखे, पर ऐसे नहीं देखे। एक जमाने में घंटाघर की ढाल पर एक लाला कुल्फी का ठेला लगाया करते थे। उनकी राग-तरन्नुम बड़ी शानदार। वैसी राग भतेरे रेहडी वाले निकालते हैं। अपना सामान बेचने के लिए अगल-अलग सुर बिखेरते हैं। दूधिए के अपने सुर-भंगार वाले के अपने। आप ने कभी-कीटी वाला केला खाया-देखा या ऐसे केले के बारे में सुना। सुनते भी कैसे। ऐसे केले होते तो सुनते। ऐसे केले होते तो देखते। ऐसे केले होते तो खाते। मगर ठेले वालों के सुर जोरदार-‘केले में कीटी..केले में कीटी..।
मानों केले में मावे वाली कीटी डाली गई हो। यहां कीटी वाले ‘रूल भी नही मिलते-उनमें भी क्रीम का तड़का होता है और वो कीटी वाले केले की राग आलापते हैं। उनसे मिलता-जुलता राग वो कुल्फी वाले लाला आलापा करते थे। हांलांकि वैसे सुर टोले-मौहल्ले में फिर कर चाट-आइसक्रीम-कुल्फी या अन्य बच्चेदार खाद्य सामग्री बेचने वाले भी उगलते है। पर उनकी बात कुछ और ही थी। सुर थे ‘खाया तो होगा पर ऐसा नहीं, खाया होगा।
कई लोगों को बच्चेदार पे खदबद हो रही होगी। ऐसा होना तो नही चाहिए और अगर होता है तो ललाट पर शिकन पड़े जैसी कोई बात नही है। बच्चेदार बोले तो बच्चों वाला। अपन कहते भी हैं-‘फलां व्यक्ति बाल बच्चेदार है। रूटीन में यह कहाई चल जाती है, मगर इसमें छुपी घालमेल पर किसी ने गंभीरता से गौर नही किया। हम ने खुलासा किया इसका मतलब ये नही कि कहाई-कहावत बदल जाएगी। कई चीजें कभी नही बदलती। कहावत-कहाई उनमें से एक।
जैसी परंपरा चल पड़ी-वैसी चल पड़ी। ‘धोबी का गधा घर का ना घाट का को हम पल-दो पल के लिए बदल सकते हैं। यह बदलाव हम-आप तक वो भी थोड़ी देर के लिए सीमित। हमने धोबी की जगह नाई और गधे की जगह कबूतर बिठा दिया, इसका मतलब यह नही कि कहावत बदल जाएगी। बाल बच्चेदार वाली कहाई में लोचा बाल भी और बच्चे भी। अरे भाई बालक और बच्चे में क्या फरक है। बाल को ही विदा कर दें तब तो कहाई सेटोसेट अन्यथा जैसा चल रहा है, वैसा चलने दो। रोकने की कोशिश करें तो भी कुछ बदलने वाला नही। कोई कितने ही दावे कर ले। पट्ठ बजा ले। ताल ठोक ले।
बात घूम फिर के दावे-पट्ठ और ताल पे आ गई। यूं कहें कि लेकर आ गए तो ज्यादा सटीक रहेगा। पेन रूपी स्टेयरिंग हथाईबाजों के हाथ में है-जिधर चलाओ, चल पड़ेगा। दावे वैसे तो हर क्षेत्र मे किए जाते हैं। व्यापारी अपने उत्पाद धाकड़ बताने का दावा करता है। सिलाई मास्टर का दावा कि ऐसी फिटिंग करूंगा कि आइंदा दौड़े चले जाएंगे। कामगार अपने काम को लेकर ताल ठोकता है तो बाबू-अफसर अपने काम पर। नेतो के अपने दावे। आप ने कभी झूठ की बुनियाद पर बेहिसाब मंजिला तामीर खड़ी देखी? नहीं देखी ना। दिखनी भी नहीं है, क्यूं कि नेतों के वादों की इमारत होती ही ऐसी है। दावे-दर-दावे किए तो जाते हैं पर पूरे नही होते।
आजादी से लगाकर अब तक नेतों की ओर से किए वादे पूरे हो जाते तो भारत आज फिर सोने की चिडिय़ा बना नजर आता। नेतों को दावे करने की लत और जनता को उनकी बातों में आ जाने का नशा। जैसा चुनावी घोषणा पत्र-वैसे दावे। हर चुनावों की तरह इस बार नगर निगम चुनावों में भी नेतारामों ने भतेरे दावे किए। अगणित वादे किए। हंूकार भरी। जहां गए-यही कहा-‘हम दोनों निगम बोर्डों पे कब्जा करेंगे। उधर से जवाबी फायर हुआ-‘हम दोनों बोर्ड जीतेंगे।
हम तो इसमें भी बलिहारी मानते हैं। किले पर कागज की पुड़ी मारने वाले नेते विधानसभा और लोकसभा की सभी सीटें जीतने का दावा कर सकते हैं। दावा करने में कौन सा पेटरोल खर्च होता है। आप दावा करो-दावे पे दावे करो, पण वो भी जानते हैं कि होगा वही-जो जानता चाहेगी। मतदाता चाहें तो वोटों से झोली भर सकते हैं। मतदाता चाहें तो वोटों का टोटा कर सकते है। निगम चुनावों में भी वही हुआ। नेतों के दावे धरे रह गए। मतदाताओं ने दोनों दलों को राजी रखा। लो, एक बोर्ड तुम्हारा-दूसरा तुम्हारा। दोनो मिल के शहर का विकास करो।
हथाईबाजों की नए नवेले और दूसरी-तीसरी बार चुने गए पार्षदों से आग्रह है कि वो सिर्फ-ओ-सिर्फ यही उद्देश्य लेकर चलें। जीत पे इतराएं नही और हारे हुए प्रत्याशियों को हताश होने की जरूरत नही है। वो भी लगे रहें। जब हम सब का मकसद जनसेवा है तो फिर तेरा और क्या मेरा। क्या कांगरेस का और क्या भाजपा का।