बाड़ खाए-खेत हमार

शीर्षक का राजस्थानीकरण किया जाए तो भी अर्थ नही बदलना है। बोली-भाषा और तर्ज-तरन्नुम में भले ही बदलाव दिख जाए, मगर मायने नही बदलने। आपणी भाषा में कहें तो निकलेगा-‘बाड़ खावै खेत म्हारो..। हम चाहते तो हैडिंग के रूप में इसे भी लटका सकते थे, पर भोजपुरी और यूपी भैयन की तर्ज उनकी फरमाइश पर दी गई। वो कहते हैं-भैया, हमें भी याद कर लिया करो, तो हमने कर लिया। याद तो रोज करते हैं। आज हैडिंग मे भी कर लिया। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

आगे बढने से पहले एक बात साफ करना जरूरी कि हथाईबाज देश में प्रचलित सभी भाषाओं और बोलियों का सम्मान करते हैं। राष्ट्र भाषा हिन्दी और मातृभाषा अपनी-अपनी। हमारी मायड़ भाषा राजस्थानी। गुजरात की गुजराती। महाराष्ट्र की मराठी। कर्नाटक की कन्नड़। हर तेरह कोस की दूरी पे बोली चेंज होती है। कई लोग भाषा और बोली को एक तराजू में तोलते हैं। उन की नजर में दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू। जैसी बोली-वैसी भाषा। जबकि ऐसा है नहीं। ऐसा होता भी नही है। ऐसा होना भी नही चाहिए।

बोली को भाषा में नहीं उतारा जा सकता। उतारना भी नही चाहिए। कोई उतार ले, तो इसका कोई ईलाज नही है। उतारने वाले उतारते भी है। हम भी वैसा कर लें तो कौन सा गुनाह हो जाएगा। लोग तो गुनाह करने के बावजूद बेशरमी से हंसी-ठठ्ठा करने से बाज नहीं आते। पण, अपन को ऐसा नही करना। अपन की नजर में बोली अलग-भाषा अलग। हम बोली में माट्साब-बैनजी का उपयोग करते रहे हैं। कर भी रहे हैं। लिखा अध्यापक-अध्यापिका अथवा शिक्षक-शिक्षिका जाता है।

बोलते हैं-डाकसाब और लिखते हैं डाक्टर साहब। देश में जितनी भी बोलियां बोली जाती हैं। देश में जितनी भी भाषाएं बोली जाती हैं। देश में जितनी भी भाषाएं प्रचलित हैं उनका हमारी राजस्थानी भाषा के साथ जोरदार जुड़ाव रहा है। कोई भाषा हमारी बड़ी बहन तो कोई छोटी। कोई बेळे की। कई बार उनको भी दुख होता है। हमें तो हो ही रहा है। पिछले लंबे समय से हो रहा है। रह-रह के यह दर्द साल रहा है कि दो-दो बार राज्य के हिस्से के सभी सांसद केंद्र में सत्तारूढ भाजपा की झोली में डाल देने के बावजूद हमारी मायड़ भाषा गंूगी है। समृद्ध-मजबूत-खरी और सरकार के हर कोण-त्रिकोण में सौ फीसदी टंच होने के बावजूद राजस्थानी भाषा संवैधानिक मान्यता के लिए तरस रही है।


‘खेत खाए बाड हमार के माने ‘बाड़ द्वारा खेत को खाना। असल में यह एक कहावत का प्रतिबिम्ब है। हम कहते है-‘ देखो यार कैसा जमाना आ गया कि बाड़ खेत को खा रही है। इसका अर्थ हमारे हिसाब से अच्छा नही है। इसमें हमारे-तुम्हारे हिसाब की बात ही नहीं। कुल जमा अच्छा नही है। ऐसा तो नहीं कि हमारे हिसाब से ठीक नहीं और आप के या इनके-उनके हिसाब से ठीक हो जाए। ऐसा है या कोई ऐसा मानता है तो हमें संतुष्ट कर के दिखा दे। पर ऐसा है नहीं। बाड़ खेत को खा रही है के माने रक्षक ही भक्षक बन गए।

बाड़ खेत को खा रही है, के माने पहरूए ही सेंधमारी कर रहे है। बाड खेत को खा रही है, के माने कोई अपने साथ घात कर रहा है। विश्वासघात कर रहा है। दूध की चौकीदारी बिल्ली को सौंपे और वो दूध चट कर जाए तो बात समझ में आती है। खुद दूधिया या खुद गाय-भैंस या खुद बकरी-ऊंटनी बालटी गट कर जाए तो जरा अटपटा लगता है। चोर थानेदार बन जाए तो कोई हलचल नहीं, दारोगा ही हाथ की सफाई पे उतर जाए तो भाईसेण इस कारस्तानी को सीधे तौर पे खेत और बाड़ से ही जोड़ते नजर आएंगे। हथाईबाजों का कहना ये कि भाषा या बोली चाहे कोई भी हो, है तो अपने देश की। ऐसा तो है नही कि हम रसियन भाषा को तवज्जोह देकर हमारी भाषा की हेटी लगा रहे हों। भाषा और बोली है, तो आपणी फिर चाहे वो हिन्दी हो या सिंधी या कि राजस्थानी हो या बंगाली। हम ने किसी का आग्रह मान कर शीर्षक लटका दिया तो कौन से कहावत के मायने बदल गए।


मूल कहावत है-‘बाड़ खेत को खा रही है। इसके माने ये नही कि बाड खेत की जमीन या खेत में उगी फसल को डकार रही है, वरन रक्षक ही राक्षस बन रहा है। इसमें किरदार बदले जा सकते हैं। अर्थ जो था वही रहणा है। अपने यहां ऐसी बाड़ें खेत तो क्या दफ्तरों से लेकर चौक-चौबारों में मिल जाएंगी। बात करते हो खेत खाणे की, यहां तो हाथ को हाथ खा रिया है। क्या नेते-क्या अफसर-क्या करमचारी-क्या उद्योगपति-क्या पुलिस वाले-क्या नातेदार-रिश्तेदार।

सबके सब खेत खाने वाली बाड का किरदार निभा रहे है। उदयपुर से आई हवा के अनुसार वहां हंसा पैलेस, जैन मंदिर रोड पर लगे पीएनबी के एटीएम से करीब 25 लाख रूपए बैंक के दो अंतिम श्रेणी करमचारियों ने ही चुरा लिए। एक सट्टे का शौकीन था दूसरा करजदार। दोनों ने मिलकर चोरीकला का प्रदर्शन कर दिया। वहां लगे सीसीटीवी में उनकी कला ैकैद्र हो गई और वो धरीज गए। तभी तो शीर्षक लटकाया। जब महंगाई डायन खाय जाता है-‘हो सकता है तो बाड़ खाए खेत हमार क्यूं नही हो सकता।