टैरिफ, तालमेल और ताना

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कहते हैं दुनिया अब ग्लोबल विलेज हो गई है, मगर इस गांव का सरपंच आज भी अमेरिका ही है। जब चाहे किसी के दरवाजे पर टैक्स का नोटिस चिपका दे, जब चाहे किसी की जेब से व्यापार खींच ले। अबकी बार निशाने पर भारत आया तो ईरान ने झट से कहा “भाई, हम साथ हैं।” वो भी तब जब अमेरिका उसी ईरान की कंपनियों पर ताले डाल रहा है।
ईरान ने अमेरिका को “आर्थिक साम्राज्यवाद” का नया ठप्पा दिया जैसे पुराने जमाने में लाल मुहर लगाकर जमींदार कर्ज वसूली करता था। मजे की बात ये है कि ये ठप्पा भारत को बहुत भाया, क्योंकि किसी ने तो खुलेआम कहा कि “कारोबार को हथियार मत बनाओ।” अब सवाल ये है कि क्या ईरान का ये समर्थन सिर्फ ‘अमेरिका विरोध’ का इम्तिहान पास करने के लिए है या सचमुच विकासशील देशों की ‘महासभा’ बनने वाली है?

इधर, मोदी जी यूएई के राष्ट्रपति से बात कर रहे हैं “भाईचारा बढ़ाएं, साझेदारी मजबूत करें।” उधर, अमेरिका अलग राग अलाप रहा है “शुल्क बढ़ाओ, कंपनियां रोक दो।” इसे कहते हैं एक तरफ फोन डिप्लोमेसी, दूसरी तरफ टैरिफ ट्रैप।
और हां, चर्चा में एक और आंकड़ा घूम गया मोदी जी देश सेवा के मामले में अब लगातार कार्यकाल की रैंकिंग में दूसरे नंबर पर हैं। पहला नंबर नेहरू जी का है, और कुल कार्यकाल में इंदिरा जी अभी भी आगे हैं। मगर फर्क सिर्फ इतना है कि तब डाक टिकट पर तस्वीर छपती थी, अब ट्वीट पर ट्रेंड होता है।

सवाल बस इतना है क्या ये नया “आर्थिक साम्राज्यवाद” फिल्मी विलेन की तरह है, जो हर देश की जेब पर डाका डालता रहेगा? या कोई “नॉन-वेस्टर्न सुपरहिट गठबंधन” बनेगा, जो एक दिन अमेरिका से कहेगा “भाई, अब तुम्हारा टैरिफ बम फुस्स हो गया!”

– बलवंत राज मेहता