सब को रोटी सब को काम…

उन्होंने नारा उछाला-लगाने वालों ने लगाया। जम के लगाया। दम मार के लगाया। हमने उस नारे को पार्टी विशेष की जद से निकाल कर आम कर दिया। नारे पर सहकारिता का मुलम्मा चढा दिया। हम तुम्हारे लिए-तुम हमारे लिए। पहले उस नारे पर एक सियासीदल का ठप्पा ठुका था। हमने वह छाप मिटा दी। पूरी तौर पे मिटेगी या नही मिटेगी, इस बात की गारंटी नही। इस कॉलम मे तो उस के साथ छेड़छाड़ की जा सकती है। बाहर भले ही कोई मूल नारे का उपयोग करे तो करे हमने तो सारे दरवाजे-सारे विकल्प खोल दिए। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


हथाईबाज इससे पहले भी नारों पे कई बार चर्चा कर चुके हैं। एक बार और कर लेंगे या कि दो-चार बार अथवा पांच-पच्चीस बार और कर लेंगे तो कौनसी जीएसटी लग जाएगी। यह कोई कानून विरोधी कृत्य तो है नहीं जो बार-बार करने से डर लगे। लोग तो कानून विरोधी कार्य करने से भी नही घबराते, अपन ऐसा कोई काम नही कर रहे। हम चर्चा करेंगे-बारम्बार करेंगे। देखें कौन रोकता है। फिर बड़े सयाने भी तो कहते हैं कि विचार-मंथन होना चाहिए। हर गंभीर मसले-मुद्दे पर चर्चा करनी चाहिए। चर्चा करने से रास्ता मिलता है। सुझाव सामने आते हैं। नए-नए आइडियाज मिलते हैं। किसी से कोई भूल-चूक हो जाए तो चर्चा करने से उन्हें दूर किया जा सकता है। चर्चा करने से एक-दूसरे की राय सामने आती है। यदि किसी समस्या-परेशानी का हल निकलता है तो चर्चा करने में हर्ज ही क्या है।


सदन में चर्चा होती है। लोकसभा हो या राज्यसभा या कि विधानसभा। शहरी सरकारें हों या गांवाई, वहां विधेयकों और प्रस्तावों पर चर्चा होती है। कई गांवों में तो आज भी पंच-पटेल चर्चा करने के बाद फैसले सुनाया करते हैं। पिछली लोकसभा के चुनावों के समय मोदीजी ने चाय पर चर्चा क्या शुरू की, आखे देश में ऐसी चर्चाएं आम हो गई। जरूरी नही कि चर्चा चाय पे ही हो। चर्चा छाछ पे भी हो सकती है। चर्चा भोजन के दौरान भी हो सकती है। गांव-गुवाडिय़ों में काके-बड्डे बिडिय़ों के धुएं और हुक्के की गुडग़ुड़ के साथ चर्चा के साथ फैसले भी ले लेते हैं। चर्चा जाजम पे हो सकती है। आप ने टे्रन में सफर तो किया ही होगा। यकीनन किया होगा। वहां जो चर्चा होती है उस की वजह से सफर कब कट जाता है, पता ही नही चलता। चारों ओर चर्चा का साम्राज्य है, ऐसे में हमने नारे पर चर्चा पे चर्चा या बार-बार चर्चा कर ली तो कौन सा गुनाह हो गया।


नारा था-‘सब को रोटी सब को काम.. का यह पैगाम। खाली जगह में उस पार्टी का नाम था, जिसने इस नारे का लोकार्पण किया था। उस पार्टी ने सब को रोटी और काम दिया अथवा नही दिया। इसके बारे में ज्यादा कुछ बताने की जरूरत नहीं। अलबत्ता हथाईबाजों ने उस नारे से पार्टी का ठप्पा हटा दिया। बाहर भले ही कोई यह नारा लगाए तो लगाए, हथाई में पार्टी बाहर। वैसे भी नए लोगों को इस नारे का ककहरा भी पता नही होगा। वो यह भी नही जानते कि इस नारे को किस दल ने कब उछाला पर खांटी हथाईबाज सब जानते हैं। वो यह भी जानते हैं कि सियासी नारों में कितनी सच्चाई होती है। जैसे चुनावी घोषणा पत्र-वैसे नारे। इस की एक बानगी-‘पेपा बाई आई है.. नई रोशनी लाई है.. वाला नारा। जैसे ही पेपा बाई मंच पर आई, वैसे ही लाइटें गुल हो गई।


हथाईबाजों ने ‘सब को रोटी वाले नारे को उस दल की गोद से छिटकाया तो उसके अपने कारण हैं। हमारा कहना ये कि और कोई किसी को रोटी बाटी या काम-धंधा दे या ना दे, चुनावों के दिनों में कई लोगों को रोटी-रम और काम मिल जाता है। इधर नगर निगम चुनाव निपटे-उधर परिणाम आए और भाईसेणों ने हिसाब-किताब शुरू कर दिया। उन्हें इससे कोई मतलब नही कि किस वार्ड से कौन जीता और कितने वोटों से जीता। उन्हें तो यह भी पता नही कि किस का चुनाव चिन्ह क्या था। उनको तो अपने धंधे से मतलब था। नतीजे आने के बाद वो उसी के हिसाब-किताब में व्यस्त-उसी पे चर्चा।


चुनावों के दौरान कई लोगों को काम मिला। कई लोग लॉकडाउन से उभर गए। कई परिवारों की रोटी का इंतजाम हुआ। प्रिंटिंग प्रेस वालों से लेकर फोटो कॉपी वाले। टेंट-शामियाने वाले। फूल माला वाले। ढोल-थाली वाले। चुनावी सामग्री बेचने वाले। चाय-गुटखे वाले। ढाबे वाले। होटलों वाले। पेंटर्स। बैनर्स-फ्लैक्स बनाने वाले। फोटोग्राफर्स। दरजी। झंडिए-फरिएं सिलने वाले यहां तक कि मौहल्लों में बैठ कर ठालापंथ्ी करने वाले लुड़कों ने भी तीन सौ से लेकर पांच सौ तक की दिहाड़ी कमाई। उधर मदीरा के शैकीनों का अपना आंकड़ा किसी के पास चालीस पव्वे तो किसी के पास तीस। किसी के पास एक माह की शाम का इंतजाम तो किसी के पास डेढ़ माह की शाम का। उन सब की ओर से प्रत्याशियों का आभार। जो जीते उनके गले में फूलों का हार और जो हारे उनके लिए तसल्ली का हार। जनता का फैसला सिर आंखों पर और जुबान पर वही परिवर्तित नारा-‘सब को रोटी सब को काम..मांगीलाल का यह पैगाम..।