फाइल ऑन व्हील

सवाल ये नही कि वैसा क्यूं होता है। सवाल ये नही कि यहां और वहां में इतना फरक क्यूं है। भाई, ये तो स्वाभाविक है-जब भाई-भाई के स्वभाव में फरक हो सकता है। जब सिस्टर-सिस्टर की नीति-रीति में फरक होता है, तो सिस्टम-सिस्टम में क्यूं नहीं। दूसरी बात ये कि जब हमी ने सिस्टम को कोमा में धकेला तो किसी और को दोष देने से क्या हासिल होगा, यह समझ से बाहर है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
देश-दुनिया में जितने लोग-लुगाईयां हैं उनमें खासा फरक है। शकल में फरक। अकल में फरक। कद-काठी में फरक। कार्य प्रणाली में फरक। चाल में फरक। चेहरे में फरक। कुछेक अपवादों को छोड़ दे तो हर मानखे में फरक नजर आएगा। फरक होता है तभी तो दिखता है। नीली छतरी वाले ने पूरी आदम कौम या हौव्वा जमात को एक सरीखा बना दिया होता तो पता ही नही चलता कि कौन मांगीलाल है कौन मांगी बाई। सब की शकलें और कद-काठी एक सरीखी। भगवान ने इसीलिए फरक डाला। ऊपर वाले ने इसीलिए अलग-अलग शकलें घड़ी और अपने हिसाब से बुद्धि दी। अपन बात करते हैं भाई-भाई और बहन-बहन की, यहां तो अंगुलियों-अंगुलियों मे फरक है। चिटुड़ी की साइज अलग-मिठुड़ी की अलग तो इन की चाल और उनकी बोली में अंतर क्यूं तलाशना।
फरक दो प्रकार के। एक-नीली छतरी वाले की तरफ से दिया गया तोहफा और दूसरा हमारी ओर से पैदा किया गया। मालिक तो इंसान बनाता है हम उसे धरम-कौम और कुनबों के खांचों में फिट कर देते हैं। मालिक ने कौवे और कोयल को कालाकिट्ट बनाया मगर बोली अलग-अलग दी। कौवा अपनी कर्कश आवाज के कारण सब को सूगला लगता है, मगर कोयल अपनी सुरीली कु..हू..कु..हू.. के कारण सब का मन मोह लेती है। काली तो समझ में आती है ये किट्ट-क्या है..। किट्ट पे माथे पर बळ पड़ सकते हैं। किटकिटाना सुना। किट्टू सुना। किट्टी और किटी सुना। ये किट्ट-किट्ट क्या है.. ये किट्ट-किट्ट..। असल में यह एक जोड़ा है। इससे मिलते-जुलते जुमले अपनी राजस्थानी भाषा में भतेरे मिल जाएंगे। डिक्शनरी में उनका कोई अर्थ नहीं। शब्दकोष में कहीं उन की चर्चा नही, मगर जुगलबंदी में जोरदार। किसी के साथ हथलेवा जोड़ते ही ‘ओप आ जाती है। ऐसे जोडऩे को गिनाने बैठ गए तो कलैंडर के पन्ने बदल जाणे हैं, मगर खास-खास की इवीएम बजाना जरूरी ताकि नई नस्ल भी उनके बारे में जान सके। ऐसे जोड़े और किसी भाषा-बोली में मिले, या ना मिले। मिलने का तो सवाल ही नहीं मगर राजस्थानी भाषा में उन की तर्ज-तरन्नुम-सुर-लहरियां सब मिल जाणी है। उदाहरण के तौर पे लालचट्ट। पी’ळीपट्ट। हरीहट्ट। धो’ळीधच्च। ठीक उसी प्रकार का’लीकट्ट..। कौआ काला और कोयल काली, मगर दोनों की बोली में अंतर। ठीक उसी प्रकार भाई-भाई और बहन-बहन में फरक। जब वहां इतना अंतर हो सकता है तो सिस्टम में क्यूं नहीं। हमी बनाने वाले-हमी बिगाडऩे वाले। अच्छा-भला चल रहा था, पता नही क्या सूझी कि सब कुछ चलता है का तड़का मार दिया। आज उसी चलताऊ ने सब कुछ कूंडा कर के रख दिया। कोई सुधरना चाहता ही नही है।
कई दफे ऐसा लगता है, मानों हमने ना सुधरने की सौगंध ले रखी है। बिचारे नगर निगम वाले लूर ले ले के बजाते हैं.. कचरा नही फैलाना है.. पण निगोडे उसमें भी छेडख़ानी करने से बाज नहीं आते। बड़ी ठिटाई से कहते हैं-‘कचरा यहीं फैलाना है…फिर दोष सिस्टम को देते हैं और सिस्टम भी कम नहीं। जब हम नहीं सुधरे तो सिस्टम कैसे सुधरेगा। हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा मे सौ टका सच्चाई नजर आती है मगर सुधार के नाम पर कोई आगे नही आता। कोई आ भी जाए तो लोग सुधरना नही चाहते ऐसे में सुधारसिंह थाकहार कर बैक टू पवैलियन।
आपणे सीएम सर ने पिछले दिनों सुस्त सरकरी सिस्टम पर खिन्नता जताते हुए कहा कि था-‘ई सिस्टम से तीस मिनट में पिज्जा घर पे पहुंच जाता है, मगर सरकारी फाइलें हफ्तों-महिनों तक नही सरकती। सरकार द्वारा बनाई गई एक कमेटी की रिपोर्ट में भी सीएम सर के उस उद्बोधन को अंडर लाइन किया गया है। इसके माने कमेटी के अध्यक्ष और खुद सीएम साब जानते है कि सरकारी महकमा सौ दिन में अढाई कोस चलता है। यह तो है चावी बात और जगचावी बात ये कि कोई फाइल पे कुछ रख के तो देखे। उसके बाद क्या होता है-किसी को कुछ बताने या जताने की जरूरत नहीं। ऊपर कुछ रखा हो तो फाईल ऑन व्हील। सिस्टम ही ऐसा कि बिना लिए-दिए कुछ होता नहीं। सिस्टम में या तो चलता है जैक या फिर चैक। कई बार जैक पे चैक भारी पड़ता दिखाई दे जाता है। हमने सिस्टम की बुनियाद ही भ्रष्टाचार की नींव पर खड़ी की। व्यवस्था हमने खुद ने बिगाड़ी। शुरूआत में ही सफाई कर दी होती तो आज शासन-प्रशासन और सिस्टम साफझक्क नजर आते।
हथाईबाजों का कहना है कि अब भी कोई देर नहीं हुई है। जब जागो तभी सवेरा, पण सवाल ये कि जागे कौन और जगाए कौन।