
डॉ. एम. एस. डोरिया ‘मधुकर
देश की एकता और अखण्डता को बनाए रखने और भावी पीढी को शिक्षा देने के लिये जिस कौम को भूला सा दिया गया है, उसमें गाडिया लुहार कौम का नाम सबसे आगे आता है। यही नहीं आज भी इस कौम ने अपने ऐतिहासिक योगदान को एक घरोहर के रूप में सदियाँ बीत जाने के बाद भी जिस तरह से न केवल सहेज रखा है, बल्कि उसे आत्मसात कर पीढी दर पीढी उसका निर्वाह भी किया जा रहा है। दुनियां के इतिहास के पन्नों मे आज भी इस कौम का इतिहास अपने आप में यह दर्शाता है कि अपने वचन पर अडिग रहने का, तथा उसका निर्वाह जिस तरह से यह कौम आज भी कर रही है वह अपने आप में न केवल अजूबा है बल्कि देश की अखण्डता और एकता को बनाए रखने की शिक्षा भी दे रही है। यह बात और है कि उसको कितनी मान्यता दी जा रही है । लेकिन यह कौम बिना किसी की परवाह किये अपने वचन का, आज भी निरन्तर निर्वहन किये जा रही है और अपनी पीढीयों को उस पर निछावर करती आ रही है ।
गाडिया लुहार वह कौम रही है, जिसने मुगल सम्राट अकबर की सेना से लोहा लेने के लिये महाराणा प्रताप को अपना सहयोग उस समय दिया जब वे पुनः सैन्य शक्ति को संचित करने के लिये अरावली की पहाडियों में गुमनामी जीवन व्यतीत कर रहे थे। इसी कौम ने तब अपने महाराणा का मनोबल बनाए रखने के लिये प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक महाराणा के अधिपत्य में चित्तोड का दुर्ग नही आ जाता तब तक यह कौम जमीन पर ही सोएगी, कभी भी एक स्थान पर स्थायी निवास नही बनाएगी और आजीवन उनका साथ देगी। इस कौम के द्वारा तब की ली गई प्रतिज्ञा का निर्वहन आज भी उसी तरह से चल रहा है, क्योकी महाराणा अपने जीते जी चितोड दुर्ग को अपने अधिपत्य मे नही ले पाए थे, और यही टीस आज भी इस कौम के पास घरोहर के रूप में ज्यो की त्यों सुरक्षित है। यही कारण है कि आज भी यह कौम सदियाँ बीत जाने के बाद भी चित्तोड दुर्ग पर नही चढती और अपनी जिन्दगी को यहाँ-वहाँ बैल गाडियो पर निरन्तर गाँव-गाँव शहर शहर, ढोए जा रही है। उनकी यह प्रतिज्ञा मुगल सम्राट अकबर के आक्रमण के कारण पन्द्रहवी शताब्दी से जो प्रारम्भ हुई, आज भी एक धुमन्तु जाति के रूप में, इण्डियन जिप्सी के रूप में करीब पाँच सौ वर्षो से अपनी वचन बद्धता के निर्वहन की यात्रा जारी है।
इतिहास में इस जाति का विवरण केवल महाराणा प्रताप को अपना अमूल्य योगदान देने के कारण ही मिलता है। इस जाति की परम्पराए और उप-जाति से यह ज्ञात होता है, कि इनकी उत्पत्ती राजपूतों से हुई। इनकी हथियार निर्माण कला के कारण ये लुहार कहलाए। बाद में खनाबदोश जिन्दगी को अपनाने कारण तथा बैलगाडी लेकर निरन्तर यहाँ-वहाँ भटकने के कारण और अपना जीवन व्यतीत करने के कारण यह कौम गाडीया लौहार के रूप मे जानी जाने लगी । आज भी यह कौम प्रायः कई गाँवो शहरों के बाहरी हिस्सो में बैल गाड़ी में निर्वाह करते देखने को मिलती है । जीवन यापन के लिये इस कौम के कई परिवारों को आज भी राजस्थान के किसी भी शहर गाँव के बाहर खुले आसमान के नीचे बैल गाडी के पास जीवन व्यापन करते हुए खासकर लौहारी का काम करते हुए देखा जा सकता है। इस कौम के द्वारा प्रायः रसोई घर के भोजन बनाने के लिये सहायक उपकरण जैसे तवा, कडाई, खुरचना, संडासी, तगारी, व अन्य काई काम में आने वाले लौह उपकारण बनाते हुए देखा जा सकता है। मरते
दम तक चित्तोड दुर्ग फतह करने की अपनी तथा महाराणा प्रताप को अपना साथ देने के शपथ ने उन्हे आज भी उसी मानसिकता से बॉघ रखा है। यद्यपि आजादी के बाद तत्कालीन प्रथम प्रधान मंत्री पॅ० जवाहर लाल नेहरू ने एवँ तत्कालीन राजस्थान के मुख्य मॅत्री मोहन लाल सुखाडिया के नेतृत्व में उन्हे यह अहसास दिलाया गया कि देश आजाद है, और अब हम किसी के गुलाम नहीं है और चित्तोड दुर्ग ही नही सम्पूर्ण भारत फतह कर लिया गया है और एक भव्य समारोह का आयोजन अप्रेल 1955 में किया जाकर गाडिया लुहार कौम को स-सम्मान चित्तोड दुर्ग पर ले जाया गया । तब अपने सम्बोधन में तत्कालीन प्रधान मंत्री पॅ0 जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें आश्वस्त किया कि उन्हे बसाने, शिक्षित करने तथा उनके जीवन में विकास लाने की कई योजनाएं बनाने के लिये भी उल्लेख किया गया । आजादी के बाद गाडीया लुहारों को विकास की गति में साथ लाने के लिये नल, बिजली, सडके, स्कूल, आवास, आदि उपलब्ध कराये गए, परन्तु एक और जहाँ इस कौम ने धुमन्तु जीवन जीने का आदी होने के कारण उन सुविधाओं का लाभ नहीं के बराबर उठाया है, वहीं कुछ समाज कॅटको के द्वारा उनको मिलने वाली सुविधाओं को हथिया लिया गया है ।
आज राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, आदि कई राज्यों में खुले आसमान के नीचे सर्दी, गर्मी, और वर्षा में ये लोग कही भी धुमन्तु जीवन व्यतीत करते नजर आजाते है । इस कौम के कुछ एक लोग पढ़ लिख कर कर सरकारी नौकरी में लगे हुए है, लेकिन आज भी इस कौम के निन्यानवे प्रतिशत लोग अशिक्षा, अंध-विश्वास, और पीढ़ी दर पीढी रूढीवादी परम्पराओं से बॅघे रह कर अपना जीवन व्यतीत कर रहे है, तथा गाँवो में और शहरों के बाहर, सड़को के किनारे छोटे-मोटे लोहे के औजारो का निर्माण कर जीवन व्यतीत कर रहे है। आज आवश्यकता है इस कौम के लोगों की औजार बनाने की कला को आर्थिक सुद्द्डता प्रदान करने, कुटिर उध्योग के रूप मे विशेश सरकारी सहायता मिले ताकि यह कौम अपने मन की टीस को भूल कर देश के नव निर्माण में अपना पूरा-पूरा सहयोग दे सके।
यों तो विश्व के मानचित्र पर बहुत सी धुमन्तु जातियाँ मिल जाएगी जिन्हे जिप्सी भी कहा जाता है, परन्तु शायद ही ऐसी कोई कौम होगी जिसे अपने स्वराज की प्राप्ति के उद्वेश्य से प्रतिज्ञा ली हो और उसे न केवल उसी स्वरूप आज भी चित्तोड का दुर्ग फतह नही करने की टीस इस कौम उनके मन में और इस कौम का व्यवहार आज भी कह रहा है कि हमने धुमन्तु जीवन केवल देश की स्वतंत्रता के लिये संघर्ष के उद्देश्य से अपनाया है ना कि किसी विवशता और दबाब से । क्या हमारी नई पीढ़ी इस कौम से कोई प्रेरणा ले कर उन्हें भी विकास की दौड साथ लेते हुए देश को समर्पित होने की अति महत्वपूर्ण बलवान भवना को भी अपनाते हुए विकास की ओर अग्रसर हो सकती है। अपनाया बल्कि उसकी अपनी पीढीया भी उसका, में निर्वहन कर रही हो ।
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