
यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि उन्हें क्यूं निकाला। किसलिए निकाला। निकालने का अधिकार है या नहीं। निकालते समय क्या कहा। आइंदा के लिए चेतावनी दी या सॉरी फील करवा के छोड़ दिया। बहस इस पे भी हो सकती है। अधिकार पे विशेषाधिकार लागू हो सकता है या नहीं। आज यहां गेट आउटपंथी लॉच हुई, कल इसका पसराव अन्य स्थानों पर भी हो सकता है। जिसे बहस करनी है, करे। जिसे बहस सुननी हैं, सुने। जिसे बहस देखी है, देखे। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
अगर हम कहें कि बहस के कदम बहक रहे हैं, तो गलत नहीं। अगर किसी को इस लाइन पे कोई एतराज-आपत्ति हो तो बहस कर सकता है। समय आप तय कर लो। स्थान बता दो। दिन निर्धारित कर द्यो। हम पहुंच जाएंगे। पर हम जानते है कि ऐसा होना संभव नहीं है। इसका कारण भी साफ और स्पष्ट है कि खेला होबे… खेला होबे। बहस और सार्थक चर्चा के दिन हवा हो गए लगते हैं। कोई खामखा टांग में पड़ी कथित ”मुड को राष्ट्रीय स्तर की बहस का मुद्दा बनाने की कोशिश करे तो यह बहस और बहस के विषय की जोरदार तो हीन है।
हथाईबाज देख रहे हैं कि देश में बहस – चर्चा का स्तर दिन-ब-दिन गिरता जा रहा। एक जमाने में हर गंभीर मुद्दे पर सार्थक चर्चा की जाती थी। सब से पहली बहस किस ने की। कब की और किस मसले पर की इसका तो पता नहीं, मगर बड़े सयाने कहते हैं कि निरंतर संवाद से समस्या का हल-समाधान मिल सकता है। आज-कल लोगबाग मत्तै-मत्तै के फैसले करने में खुद की शान समझते है वरना आई-बाबा और उनके बाई-बाऊजी घर परिवार में सब से चर्चा करने के बाद निर्णय सुनाया करते थे।
वो सब की सलाह लेते। व्यक्तिगत विचार जानते। मन की बात सुनते-उस के बाद जो फैसला होता वह पूरे कुनबे को मान्य होता था। आज इसका उल्टा हो रहा है। अव्वल तो कोई किसी को हींग लगा के भी नहीं पूछता। सलाह देणे वाले भतेरे मिल जाणे हैं। जहां देखो वहां नसीहत खान मिल जाएंगे। चौक-चौबारों से लेकर गली-गुवाड़ी तक राय बहादुरों की भरमार। एक ढूंढों-हजारों मिल जाएंगे। अब तो ढूंढने की भी जरूरत नहीं। समय मिले तो खुद के भीतर झांकणे की जहमत उठा के देखना, हो सकता है सीखभान सिंह बिराजा मिल जाएं। कई सीखूमल तो ऐसे जिन से भले ही कोई राय ना ले मगर वो देणे में कंजूसी नही बरतते। दोनों हाथ से लुटाओ तो भी सलाह का गोदाम खाली होणे वाला नहीं।
हथाईपंथी राय लेने और देने को बुरा नहीं मानते। वो तो सलाह और चर्चा के जोरदार पक्षधर रहे हैं। यदि किसी मसले-मुद्दे पे संशय हो तो उस पर चर्चा की जा सकती है, हो सकता है कोई समाधान निकल जाए। हो सकता क्या यदि दोनों या चर्चा में शामिल होने वाले सभी पक्ष खुले दिमाग और सकारात्मक सोच रखें तो हर मसले का हल निकल सकता है। चर्चा हथाई से लेकर सदन में होती है। सदन में होने वाली चर्चा कई बार स्तरहीन हो जाती है मगर हथाई पर होने वाली चर्चा का जायका अब तक नहीं बदला-नो बदलने वाला। वहां तर्कों और सबूतों-नजीरों के साथ बहस होती है।
सदनों में भी एक जमाने में गंभीर चर्चा हुआ करती थी आज वहां चर्चा कम और हंगामा ज्यादा होता दिखता है। हम हमारा प्रतिनिधि चुनकर इसलिए भेजते हैं कि वो वहां जाकर हमारी आवाज बनेगा। हमारी समस्याएं उठाएगा। हमारी परेशानियां दूर करने के प्रयास करेगा मगर वो वहां धमाल मचाने में मशगूल हो जाता है। हमारी व्यक्तिगत राय है कि सदन के नियम-कानून की पालना के लिए नई आचार सहिंता बननी चाहिए। जो उसका उल्लंघन करे उसे सदन से बाहर कर दिया जाना चाहिए। पहले हफ्ते-दो हफ्ते के लिए। फिर भी ना सुधरे तो सकत्र के लिए फिर भी ना सुधरे तो उसे वापस जनता के बीच भेज दिया जाए। जाओ भाईजी, मौहल्ले के पार्क में बैठकर ताश कूटो।
गुजरात विधानसभा अध्यक्ष ने कल कांग्रेस के एक विधायक को इसलिए सदन से बाहर निकाल दिया क्यूंकि वो तड़कीली-भड़कीली डिजाईन और रंग वाला टी-शर्ट पहने के आ गए। इस पर उनकी पारटी के अन्य विधायकों ने जोरदार हंगामा किया मगर विधानसभाध्यक्ष अड़े रहे। हम भी उनके साथ। यार, आप विधायक हैं। सदन में सौभरता के साथ जाएंगे तो अच्छा लगेगा। हम यह नहीं कहते कि जींस-टी-शर्ट गंदा पहनावा है।
इसकी जगह कुर्ता-पायजामा या अन्य भारतीय परिधान पहन के जाओ तो ठीक रहेगा। पहनने का अधिकार के माने यह नहीं कि सदन को फैंसी ड्रेस का मंच बना दो। कल को तो चड्डा-बंडा पहन के सदन में आ जाओगे। बरमुडा और बनियान धारण कर के आ जाओगे। हम तो कहें कि जनप्रतिनिधियों के लिए भी सदन में ड्रेस कोड अनिवार्य कर देना चाहिए। सांसदों की अलग वर्दी-विधयकों की अलग। स्थानीय निकायों के सदस्यों का अपना गणवेश-पंचायती राज संस्थाओं के सदस्यों का अपना। जो नियमों की अवहेलना करे उसके विरूद्ध ”गेटआउटपंथी की कार्रवाई।