काटा-काटी नहीं चलेगी….

आप ने पतंग तो उड़ाई होगी। जरूर उड़ाई होगी। यकीनन उड़ाई होगी। शरतिया उड़ाई होगी। देश में ऐसा कोई बंदा नही जिसे पतंगबाजी का शौक ना रहा हो। बच्चों के साथ मोट्यार और बुजुर्गों ने भी यह शौक पाल रखा है। जब-तब मौसम आता है, शौक ठाठे मारता है। उसके बाद पूरी तैयारी के साथ ‘डागळे पर चढाई। पतंगें उड़ेें और ‘वो का’टा है.. वो मा’रा हैं..की सुर लहरियां ना गूंजे, ऐसा हो ही नही सकता। पर इन दिनों हम काटा-काटी विरोधी सुर सुन रहे हैं। ये सुर दिनों-दिन मुखर होते जा रहे हैं। काटा-काटी का विरोध हो रहा है। ‘बंद करो भई, बंद करो.. काटा-काटी बंद करो..। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


काटा-कटी कितने प्रकार की होती है। काटा-काटी कौन करता है-कब करता है। काटा-काटी कैसे होती है। किन-किन तरीकों से होती है। इन सब पर चर्चा बाद में। पहले पतंगबाजी के दौरान दिखाई देने वाले नजारों पर नजर डालना बेहतर रहेगा। उससे पहले ‘डागळे और ‘तिपड़े के बारे में बताना जरूरी। हम-आप के बखत के लोग भले ही इनके बारे में बखूबी जानते होंगे पर आज की नस्ल सफा अनजान, चाहो तो घर के बच्चों को पूछ कर देख ल्यो। सपोज करो कि हिन्दी की परीक्षा मे सवाल आ जाए कि ‘तिपड़ा किसे कहते हैं तो ग्रामीण और शहरपनाह के परिपेक्ष में पले-बढ़े बच्चे तो फटाक से बता देंगे।

सेंट फलां और सेंट ढिमका सरीखे मुंह लगी अंगरेजी मीडियम स्कूल के बच्चे बगले झाकने लगेंगे। हथाईबाजों का सभी अभिभावकों से निवेदन है कि वो अपने बच्चों को अपनी सामथ्र्य के अनुसार जहां चाहें वहां पढाएं। सरकारी स्कूल में पढाएं। कॉर्पोरेशन की स्कूल की पढाए। जातिगत संगठनों द्वारा संचालित स्कूलों में पढाए। हिन्दी-गणित-ज्ञान-विज्ञान अथवा भूगोल-संस्कृत माध्यम की स्कूलों में पढाएं या अंगरेजी माध्यम की स्कूल में, उन्हें अपनी मायड़ भाषा से जरूर जोड़े रखें। बाहर बोलें तो सोने में सुहागा, वरना घर में तो अपनी भाषा में ही बात करें। ऐसा हर घर में हो जाता तो हमें नई नस्ल को ‘तिपड़े और ‘डागळे का अर्थ बताने की जरूरत ही नही पड़ती।


‘तिपड़ा और ‘डागळा हमारी प्यारी राजस्थानी भाषा की कोख से निकले हुए है। हिन्दी में इसे घर की छत कहा जाता है। नई नस्ल की जुबान पर ‘टेरिस चढा हुआ है। कुल जमा हमारे लिए तिपड़ा। हमारे बखत में पतंगों के मौसम और गरमी के दौरान ‘डागळों पर जोरदार रंगत रहा करती थी। शाम को ऊपर चढ जाते और पानी छिड़क कर छत को ठंडी कर बिछौने बिछाते। ज्यों-ज्यों धुंधलका छाता तिपड़ो पे रंगत बढती जाती। पूरा शहरपनाह छतों पर। वही खेल। वहीं-कहानी किस्से। वहीं अंत्याक्षरी। खाना-पीना भी डागळों पर। आंधी या तेज हवा चलती या कि कभी बारिश आ जाती तो सारे लोग अपने-अपने बिछौने लेकर नीचे भागते। कई बार ऊपर से नीचे ‘धम्म कर देते। तिपड़े की बिंडियों पर रखी पानी की ‘पतोलियों पर रखे ढक्कन और गिलासें-लोटे गिरने की खनक ही कुछ और।


उन दिनों शादी-समारोहों का जीमण भी छतों पर ही होता था। जगह कम पड जाए तो पड़ोस के घरों की छते तैयार। इधर महिलाएं-उधर पुरूष। कार्यकर्ता बड़े प्यार से पुरसगारी करते। पतंगों के मौसम के हर तिपड़े पे रंगत। शाम पड़ते ही पतंगबाज जुट जाते। राखी-मकर संक्रांति और स्वाधीनता दिवस पर रंगत दोहरी हो जाती। पीछे कॉलम बजते-आकाश पतंगों से ढक जाता। फिजां वो का ‘टा… वो मा ‘रा.. से गंूज उठती।
एक हिसाब से देखा जाए तो नए मेहमान के दुनिया में आने से लेकर अंतिम सफर तक काटा-काटी का दौर चलता रहता है। काटा-काटी बिन सब कुछ तो नहीं, काफी-कुछ सून जरूर है। फर्ज करो कि साक काटने की परंपरा का ईजाद नही किया गया। होता तो क्या होता। हांलांकि विकल्प जरूर खोज लिया जाता मगर वो हाल-हूलिया दिखाई नही देता जैसा अभी नजर आ रहा है। लॉकी से लेकर आलू-रतालू और ककड़ी से लेकर टींडे-बैगण आखे पकाणे पड़ते। उनके वास्ते बड्डे भांडे होते। इससे बड़ी आफत कपड़ों की। थान से कपड़े और कपड़ों के पीस की कटाई के बिना पेंट-बुशकेटों की सिलाई कैसे होती। फसलें नही कटती तो अन्न कहां से निकलता। हमें ‘डाखळे चबाने पड़ते। शॉर्ट में कहा जाए तो काटा पीट-कतरन का अविष्कार जिस ने भी किया, वो धिनवाद का पात्र है। पर हथाईबाज जिस कटाई-कूटी की बात कर रहे हैं उसके तार कटौती से जुड़े हुए।


करोनाकाल ने देश-दुनिया का हाल-हूलिया-काल-परिस्थितियां सब बदल के रख दी। आम से लेकर खास इस के लपेटे में। इस दौरान काटा-काटी ऊफान पर। नौकरियां कटी। पेट कटा। जेब कटी। खुराक कटी। आना-जाना कटा। यात्रा कटी। समारोह कटे। रस्म-ओ-रिवाज कटे। रिश्ते-नाते कटे। वेतन-भत्ते-कटे। कई निजी संस्थानों ने ना तो वेतन काटे ना नौकरियां, उन्हें धन्यवाद वरना राज्य सरकार भी काटा-काटी पे उतरी हुई है।
आपणे राजस्थान को ही ले ल्यो। सरकार आपदा के नाम पर जोरदार काटा-काटी कर रही है। मंतरियों से लेकर संतरियों और विधायकों से लेकर अफसर-बाबुओं के वेतन भत्तों में कटौती। पहले ये काटा-अब वो कट रहा है। पहले वो कटा-अब इसकी बारी। चारों ओर वो काटा…है…के सुर। अब इनके विरोध में भी सुर फूटने शुरू हो गए है। करमचारी संगठनों ने इसका विरोध शुरू कर दिया। तुम्हारी बाड़ाबंदी का खर्चा हम क्यूं उठाएं। तुम होटलों में मजे मारो और वेतन हमारा कटे, ऐसा नही चलेगा। इस के विरोध में नया नारा लॉंच हो गया-‘काटा-काटी नही चलेगी.. नही चलेगी.. नही चलेगी..। देखें भविष्य में और क्या-क्या कटता है और कब-कब कटता है। फिलहाल तो नारे गंूज रहे हैं।