
जयपुर। भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश में शिक्षा को न केवल विकास का आधार माना जाता है बल्कि यह सामाजिक समानता, आर्थिक सशक्तिकरण और लोकतांत्रिक मूल्यों की नींव भी है। फिर भी, आज जब हम देश की शैक्षणिक स्थिति पर नजर डालते हैं, तो अनेक संकट एक साथ दिखाई देते हैं – विशेष रूप से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता की कमी और प्रवेश प्रक्रिया में असमानता प्रमुख हैं। जयपुर जैसे शिक्षा के केंद्र माने जाने वाले शहर में भी जब प्रतिष्ठित महारानी कॉलेज की कट ऑफ लिस्ट सामने आती है और उसमें बीए जैसे सामान्य कोर्स के लिए सामान्य वर्ग की कट ऑफ 96.4% तथा अनुसूचित जनजाति की भी 93% पहुंच जाती है, तो यह स्थिति चौंकाती है।
राजनीति विज्ञान जैसे विषय की कट ऑफ 98.6% और इतिहास की 96%l अब तक विज्ञान व तकनीकी से जुड़े प्रवेश परीक्षाओं को ही चुनौती पूर्ण माना जाता था लेकिन सामान्य स्नातक कोर्स के लिए 90% अंक लाना भी प्रवेश के लिए पर्याप्त नहीं रहा। क्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही कट ऑफ शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार का प्रतिबिंब है अथवा लचर एवं अवैज्ञानिक मूल्यांकन व्यवस्था का परिणाम है अथवा छात्रों पर सिलेबस को रटने व परीक्षाओं में अधिकतम अंक लाने का दबाव है ? यह न केवल शिक्षा व्यवस्था की विकृति है, बल्कि यह विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर खतरा बन चुका है। वे दुविधा में हैं कि अब क्या करे -कहाँ जाये? छात्र अपने भविष्य को लेकर भ्रम और निराशा की स्थिति में हैं।
भारत की शिक्षा व्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्थाओं में से एक है। 2024-25 की आर्थिक समीक्षा में दिए आंकड़ों के अनुसार 14.72 लाख विद्यालय, 91 लाख अध्यापकों के द्वारा 24.8 करोड़ विद्यार्थियों को शिक्षा दे रहे हैं। 2021-22 में 4.33 करोड़ विद्यार्थी 50000 से अधिक उच्च शिक्षण संस्थानों में उच्च शिक्षा ले रहे थे, अनुमानतः 2025 में लगभग 5 करोड़ विद्यार्थी उच्च शिक्षा में अध्यनरत होंगे । भारत ,चीन व अमेरिका के अलावा किसी भी देश की कुल जनसंख्या से भी अधिक 30 करोड़ विद्यार्थियों के साथ भारतीय शिक्षण व्यवस्था न केवल सबसे बड़ी वरन् जटिल तथा विविधता पूर्ण भी है । इतने विशाल आकार के बावजूद शिक्षा प्रणाली में मांग एवं आपूर्ति का भारी असंतुलन बना हुआ है, खासकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में। भारत में उच्च शिक्षा में मांग व आपूर्ति में गंभीर असंतुलन है। प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों की कमी छात्रों के लिए गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा के अवसरों को सीमित कर देती है।
इनमें प्रवेश के लिए गला काट प्रतिस्पर्धा तथा गगनचुंबी कट ऑफ छात्रों को मानसिक दबाव व नैराश्य की ओर धकेल रहे हैं । देश में प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थानों की संख्या सीमित है, जबकि इन संस्थानों में पढ़ने की इच्छा रखने वाले छात्रों की संख्या प्रतिवर्ष लाखों में है। यह असंतुलन ही अत्यधिक प्रतिस्पर्धा को जन्म देता है। चूंकि इन प्रतिष्ठित संस्थानों में सीटें कम हैं, इसलिए कट ऑफ मार्क्स लगातार आसमान छूते जा रहे हैं। इस तरह की कट ऑफ प्रणाली ने शिक्षा को एक प्रतियोगी युद्ध बना दिया है जिसमें विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य, आत्मसम्मान, भविष्य की संभावनाएं दाँव पर लग जाती है यह स्थिति विशेष रूप से उन छात्रों के लिए त्रासद बन जाती हैं जो ग्रामीण परिवेश से आते है तथा आर्थिक रुप से कमज़ोर तबकों से संबंधित हैं क्योंकि उनके लिए यह न केवल अवसरों का संकट बन जाती है बल्कि उनकी मेहनत, प्रतिभा और आकांक्षाओं को भी अपमानित कर जाती है ।
राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद (NAAC) के अनुसार केवल 25% कॉलेज और विश्वविद्यालय ही ‘A’ ग्रेड या उससे ऊपर की मान्यता प्राप्त कर पाए हैं। इसका मतलब यह है कि अधिकांश संस्थान औसत या उससे भी नीचे गुणवत्ता वाले हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उच्च शिक्षा में गुणवत्ता का गंभीर संकट है। निजी संस्थान, जो भारी-भरकम फीस लेकर छात्रों को शिक्षा देने का वादा करते हैं। लेकिन अधिकांश संस्थान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में असफल रहते हैं। उसका एक प्रमुख कारण अच्छे शिक्षकों की कमी भी है शिक्षण संस्थान शिक्षकों को बहुत कम वेतन देते हैं इस कारण योग्य व्यक्ति शिक्षा को आकर्षक करियर विकल्प के रूप में नहीं देखता है ।सरकारी कॉलेज व विश्वविद्यालय में भी व्यवस्था अस्थायी शिक्षकों के भरोसे ही चल रही है।
शिक्षा व्यवस्था में क्षेत्रीय असंतुलन भी स्पष्ट है। महानगरों और राजधानी क्षेत्रों में अपेक्षाकृत बेहतर शिक्षण संस्थान हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों और दूरदराज के राज्यों में उच्च शिक्षा के पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हैं। इसके साथ ही भाषाई असमानता भी एक बड़ी चुनौती है। अधिकांश प्रतिष्ठित संस्थान अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा देते हैं, जिससे ग्रामीण और हिंदी भाषी छात्र स्वतः ही पिछड़ जाते हैं। नई शिक्षा नीति 2020 को देश की शिक्षा व्यवस्था को पुनर्गठित करने की दिशा में एक अहम कदम माना गया, लेकिन अब तक इसका क्रियान्वयन कमजोर दिख रहा है। नीति में भले ही गुणवत्ता, बहुभाषिकता और समानता की बात की गई हो, लेकिन जमीनी स्तर पर इन वादों की प्रतिध्वनि नहीं सुनाई देती। सबसे महत्वपूर्ण यह कि नीति में गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा संस्थानों की संख्या बढ़ाने की स्पष्ट कार्य योजना का अभाव है।
भारत की शिक्षा व्यवस्था आज दोराहे पर खड़ी है। एक ओर विशाल जनसंख्या और ज्ञान की भूख है, दूसरी ओर गुणवत्ता, अवसर और संसाधनों का अभाव है। यह आवश्यक है कि हम कट ऑफ की चकाचौंध के पीछे छिपे दर्द और असमानता को समझें और शिक्षा को केवल अंकों की होड़ नहीं, बल्कि समग्र विकास का माध्यम बनाएं। प्रवेश से वंचित छात्रों की प्रतिभा और कौशल समुचित मार्गदर्शन के अभाव में व्यर्थ नहीं होना चाहिए। शिक्षक को शिक्षा के केंद्र रखकर,उसकी गरिमा को पुन: प्रतिष्ठित कर, योग्यतम लोगो को आकर्षित करके, संस्थानों की गुणवत्ता में सुधार के द्वारा ही स्थिति में परिवर्तन लाया जा सकता है ।