छुट्टी.. छुट्टी

जहां तक हमारा खयाल है, ज्यादातर लोगों को शीर्षक पढते ही अपने स्कूली दिन याद आ गए होंगे। क्या दिन थे भाई.. क्या दिन थे..। कई बार जी करता है-‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन..। सच तो यह है कि दिन तो बहुत बडी बात, कोई बीता हुआ एक पल भी वापस नहीं लौटा सकता। हां, वो लम्हे.. वो पल.. वो दिन, याद जरूर किए जा सकते हैं। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

यादें कभी पीछा नही छोड़ती। यादें भूलाए से भी नहीं भूलती। चाहे जितने झटके मार ल्यो। चाहे जितने मरोड़े मार ल्यो। घर बदल ल्यो। शहर बदल ल्यो। मौसम-माहौल बदल ल्यो। यादों को किसी भी सूरत में दूर नहीं किया जा सकता। हमारी तो सलाह है कि अच्छी-भली यादों को हमेशा संजों के रखना चाहिए। गनीमत है कि किसी को ‘याद बैंक बनाने का खयाल नही आया कोई चाहे तो बना सकता है। आइडिया हम ने दे दिया। क्रियान्वित करना आप काम। अच्छी यादों की अलग बैंक-कड़वी यादों की अलग। याद बैंक ऑफ जोधाणा के अलावा दीगर बैंकें भी स्थापित की जा सकती हैं। कन्या के दुनिया में आते ही पांच किलो घी। पांच किलो शक्कर। पांच-किलो आटा। पांच किलो बेसन।

अर्थात जीमण में काम आने वाली सभी सामग्री बैंक में जमा करवा दी जाए तो उसके वयस्क होने तक खाने का पूरा खर्चा आराम से निकल सकता है। एक साड़ी सेट का ब्याज 101 सेट। एक जोड़ी चप्पल के बदले 51 जोड़ी। एक तोला सोना-चांदी के बदले 21 तोले के जेवर। एक पीपा घी-तेल के एवज में 11-21 पीपे तैयार। पांच किलो दूध के बदले 251 किलो दूध की वापसी। बैंक में दाल-चावल-साक-भाजी भी जमा करवाए जा सकते हैं। कोई चाहे तो ऐसी बैंके खोल के देख सकता है। चल जाए तो फर्राटा नितर खटारा।

क्यूंकि बात और याद स्कूली जमाने की चल रही है। बचपने की चल रही है तो उसी पे फोकस रखना ठीक रहेगा। हमारे बखत में स्कूलें और पोशाळे ही हुआ करती थी। राजकीय प्राथमिक विद्यालय ठक्करबापा इस गली में-राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय गणेशगढ़ उस मौहल्ले में। उच्च शिक्षण संस्थान अंगुलियों पे गिणे जित्ते। ये सैंट पेट्रिक्स-ये सेंट पॉल्स और ये सेंट जॉन तो अब पैदा हुई हैं। हमारे टेम में राम निवास जी माट्साब की पोशाळ आखे शहर में चावी थी।

उन दिनों स्कूल जाने और छुट्टी होने पर जो मंजर पेश आते थे, वो आज भी जेहन में खदबदा रहे हैं। याद आती है तो चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है। कई सरकारी स्कूलों, खासकर ग्रामीण क्षेत्र की स्कूलों के विद्यार्थी उन दृश्यों को दोहराते नजर आते हैं। कल वो बड़े हो जाएंगे तो उन्हें भी वो दृश्य याद आएंगे-जैसे आज हमें आ रहे हैं। उन दिनों स्कूल जाने के नाम भर से कई बच्चों के पेट में मरोड़े उठ जाया करते थे। कभी ताव-बुखार की शिकायत तो कभी माथा-पेट दुखने का राग।

स्कूल टाइम निकलने के बाद सारा दुख दर्द दूर। कई बच्चों को ‘टांगाटोळी कर के स्कूल ले जाया जाता। इसके लिए बकायदा एक गेंग होती। जिसमें छह-आठ छोरे होते। वो स्कूल से छिपले खाने वाले बच्चों के यहां जाते और उसे खींच-उठा के स्कूल लाते। ऐसे सीन रोजमर्रा के। छुट्टी के समय का नजारा भी जोरदार। छुट्टी की घंटी बजती तो बच्चे-‘छू.. टी.. छू.. टी.. की सुर लहरियों के साथ स्कूल से ऐसे बाहर निकलते जैसे कैद से आजाद होकर निकलें हां। अगले दिन अदीतवार या और कोई अवकाश पड़ जाता तो खुशी दोहरी। छू.. टी.. छू.. टी.. के साथ-‘काले म्हारी छू.. टी.. के सुर भी शामिल।

हथाईबाज उन दिनों को इसलिए याद कर रहे हैं कि उसे मुनीम-गुमास्ते दोहराते नजर आ रहे हैं। सुर लहरियां तो बच्चों वाली नहीं। ना कक्षा से दौड़कर बाहर आने वाला मंजर मगर चेहरे पर वही खुशी.. वही मुस्कराह.. वही हंसी, जो छुट्टी पर स्कूली बच्चों के चेहरे पे होती है। राज्य में इन दिनों लघु लॉकडाउन की स्थिति है। कोरोना की दूसरी लहर के कहर को देखते हुए सरकार ने पहले कड़ाई बरती। कहर कम हुआ तो राहत बरती। कहर और थमा तो राहतें और बढा दी। इसके तहत बाजार सवेरे 6 से अपरान्ह बाद 4 बजे तक खोलने का नियम है। बाकी सेवाओं पर भी ढील के साथ प्रतिबंध है।

हथाईबाज देख रहे हैं कि मुख्य बाजार सुबह 9-10 बजे खुलना शुरू हो जाते हैं और अपरान्ह तीन-साढे तीन बजे दुकान मंगल करने की तैयारियां शुरू हो जाती है। चार बजे शटर डाउन। उस समय दुकानों पर काम करने वाले मुनीमों के चेहरे पे जो खुशी होती है वो छुट्टी के समय बच्चों के चेहरे याद दिला देती है। मुनीम खुश-गुमास्ते खुश। सेठजी भले ही धमीड़े लेवें मगर सेवादार खुश। बस चले तो छू.. टी.. छू.. टी.. के सुर बिखेर दें। मगर वो ऐसा कर नही सकते पण भांपने वाले भांप जाते हैं कि मुनीमजी खुश हो रिए हैं।

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