काळू खुश हुआ

काळू तो महज एक उदाहरण है। उसे तो केवल देग के चावल के रूप में पेश किया जा रहा है, वरना सब लोग खुश है…। कई हो गए… कई हो जाएंगे। इस खुशी ने रंगा का एकाधिकार खल्लास कर दिया। आम भी खुश-खास भी खुश। खुशी राम भी खुश और दुखी राम भी खुश। वो दिन और ज्यादा खुशियां देने वाला होगा, जिस दिन इंतजार के घंटे समाप्त हो जाएंगे। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

सब से पहले इंतजार के घंटों को लेते हैं। अब तक घंटों की जगह घडिय़ां थी। हम आप ही कहा करते थे कि इंतजार की घडिय़ां समाप्त हुई। हमारी नजर से देखा जाए तो इसमें दो घाराएं फूठती दिखाई देगी। ऐसा होणा कोई नई बात नहीं है। शुकर है कि हम ने दो का ही जिकर किया वरना अपने यहां धाराओं में से धाराएं फूटती दिखाई पड़ जाएंगी। सात समंदर पार बसे देशों में दो धाराओं का ही प्रावधान है। एक में-दूसरी ये।

चुनावों के समय ये अपने और वो अपने। इनकी राग अलग-उनके सुर अलग। जाहिर है कि जीतना तो किसी एक को ही हैं। विश्व में कहीं और कभी ऐसा नहीं हुआ जब किसी जनप्रतिनिधि के लिए दो धाराओं के नेतों को संयुक्त विजेता घोषित किया गया हो। किसी खेल में ऐसा हो जाता है, ऐसा हो भी गया है। पण सियासत में ऐसा आज तक नहीं हुआ। बरोबिट्ट का मुकाबला छूटने पर लीला-सूख या चित-फुट अथवा परची से फैसला कर के एक को विजेता घोषित कर दिया जाता है। दो दलों का गठबंधन होने पर उतर भीखा म्हारी बारी के फार्मूले पर सरकार का गठन होता रहा है।

पहले छह महिने आपकी सरकार उस के बाद के छह महिने हमारी। छह महिने के टोटके पे बात नहीं बने तो मियाद एक साल की जा सकती है। ऐसा कश्मीर में हो चुका है। ऐसा यूपी में हो चुका है। यह बात दीगर है कि जंतर फेल हो गया। विदेशों में चुनावों के बखत राग अलग और चुनाव निपटने के बाद सब एक। सब का मकसद देश। सब का मकसद देश का विकास। देश की तरक्की देश की खुशहाली और अपने यहां जब तक विरोध के लिए भी विरोध की पराकाष्ठा पार नौकर लो, विरोधियों को रोटी नहीं भाती। खा भी ले तो हजम नहीं होती। यह परंपरा शुद्ध रूप से गलत है, इसके बावजूद निभाई जा रही है। हमेशा सोचते है कि यह रवायत खल्लास हो। ऐसा होना रूके। इंतजार की घडिय़ां कभी तो समाप्त होगी मगर ऐसा होता दिख नहीं रहा।

बात घंटों की चल रही थी और घडिय़ों का जिक्र हुआ तो घंटे कौन से दूर है। अपने यहां इंतजार की घडिय़ां समाप्त हुई या होगी कहने का रिवाज रहा है, हमने उसे घंटों में बदल दिया। गनीमत रही कि घंटों में बदला वरना यहां तो दिन-महिनों से इंतजार हो रहा था। लिहाजा होना चाहिए इंतजार के महिने समाप्त हुए तभी तो काळू खुश हुआ। काळू का हथलेवा आम आदमी से जुडा हुआ। ये काळू वो काळू। जित देखो तित काळू। हम चाहते तो काळू की जगह लालू-हरी-श्याम या भोमे को बिठा सकते थे। बिठाई पे किसी के पहरे नहीं। बिठा भी दो तो ज्यादा दिन चलने वाले नहीं।

जोधपुर के टाऊन हॉल क्षेत्र को ही ले लीजिए। यहां भिखारियों का जमघट लगा रहता है। ये वो भिखारी हैं जो गली-गली घूम कर ”दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रखे… के सुर नहीं बहाते ना भगवान के नाम पर कुछ दे दो बाबा… की टेर टपकाते है, वरन सेवाभावी खुद यहां आते हैं और रोटी-बाटी-सीरा-पुड़ी खिला के जाते हैं। सुबह-दोपहर की चाय तकातक उनको अपने ठिएं पर बैठे मिलती है। पुलिस वालों ने कई दफे उनको शहर से खदेड़ा। कभी मंडोर छोड़कर आए… कभी सालावास। सुबह छोड़ा-शाम को वापस तैयार।

काळू के साथ भी वैसा ही हो रहा है। लालू हो या भोमा या ओमा। उसकी सेहत पे फरक नहीं पडऩे वाला। काळू और उसके जैसे लोगों को खुश होने के अवसर कम ही मिलते हैं। कभी कभार खुशी के ”टेसण लग जाए तो गनीमत है वरना स्यापा तो है ही। चुनावों के बखत काळू की बांछे खिली रहती है। आम दिनों का काळिया उन दिनों काळूजी बन जाता है। प्रत्याशी और उनके चंगु-मंगु दिन में चार बार सलाम ठोकते हैं। वो बहुत खुश होता है।

उससे भी ज्यादा खुशी उसके चेहरे पे आज दिखाई दी। दिखाई देना भी स्वाभाविक इससे भी ज्यादा खुशी तब मिलेगी तक टीका ठुक जाएगा। केन्द्र सरकार की ओर से स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने घोषणा कर दी कि कोरोना किलर टीका सब को मुफ्त में लगाया जाएगा। टीके को लेकर बड़ी ऊहापोह मची हुई थी। गरीब-गुरबे चिंतित। कित्ते में आएगा। पैसे कहां से लाएंगे। कब लगेगा। कहां लगेगा।

उधर विपक्षियों का अपना खटराग। टीका सभी को निशुल्क लगाने का सरकार पर दबाव। आज सरकार ने घोषणा कर दी कि ”मुफ्त का चंदन… घिस मेरे नंदन..तू भी आ.. परिवार को भी ले आ…। काळू ने सुना तो ”राजी होणा वाजिब था। हम भी खुश। आप भी खुश। आम आदमी को राहत। विपक्षी काळू इस मुगालते में खुश कि सरकार को उसके दबाव में आकर यह घोषणा करनी पड़ी। कुल जमा रंगा की तर्ज पर काळू खुश हुआ…। देखना है काळू की यह खुशी कब तक बरकरार रहती है।

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