सुधर जाओ वरना सिधारने का खतरा बढ जाणा है

यहां-वहां बिगाड़ होने को लेकर तो चला लिया। चलाना नही चाहिए था, मगर चलाना पड़ गया। जो कुछ हो रहा है वह निगलने के लायक नही है, फिर भी निगल रहे हैं। पर वहां की स्थिति और यहां की स्थिति में खासा फरक है। वहां तो चला लिया पर यहां ज्यादा कुछ चलने वाला नहीं। समय रहते नहीं सुधरे तो पीछे क्या बंचेगा। बताने की जरूरत नहीं। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

अगर कोई ध्यान से पढेगा तो ऊपर के पेरेग्राफ में कुछ मजबूरियां नजर आएगी। ऐसा लगेगा मानो आंख-नाक-कान जानबूझ कर बंद करने पड़ रहे हों। दूसरा बंचेगा और बचेगा के बीच अंतर को भी समझना जरूरी। पहले इसे ही लेते हैं। एक बिंदी से अर्थ-मायने कैसे बदल जाते हैं। इस का खुलासा करना जरूरी है। कहने को तो हम-आप रूटीन में कुछ भी कह देते हैं। सुनने वाले सुन भी लेते हैं और समझने वाले समझ भी जाते हैं मगर उनपे गौर करना भी तो जरूरी है ताकि लोगों को बोली और लिखावट के मायने समझ में आ जाएं।

इस पर बदरी और शकर वाला किस्सा आम है। बदरी और शंकर नाम के दो दोस्त थे। शंकर को बदरी ने कहा-अगर तेरे ‘शं से बिंदी हटा दी जाए तो शकर खाने का मजा आ जाएगा। शंकर भी कम नही था। तपाक से जवाब दिया- ‘मेरे ‘शं की बिंदी तेरे ‘ब पे लगा दी जाए तो ‘बंदरी का नाच देखने का आनंद आ जाएगा।

यही टोटका बचेगा और बंचेगा पे लागू होता है। बंचेगा के तार पढने से जुड़े हुए। हमारी राजस्थानी मासिक ‘माणक के एड की एक लाइन है- ‘माणक बांचो और बंचाओ। इसके माने माणक पढो और पढवाओ। याने कि खुद पढो और दूसरों को पढने के लिए प्रेरित करो। ‘बांचणा माने पढना और ‘बंचवाणा माने पढवाना। बात करें बचने की तो यहां अर्थ अलग। यहां ‘ब के ऊपर से बिन्दी गायब। बचने का मतलब-बच के रहना रे बाबा.. बच के रहना रे..।

बुरे लोगों से बच के रहो। झूठे और मक्कार लोगों से बच के रहो। खुदगर्ज लोगों से बच के रहना। मतलबपरस्त लोगों से बच के रहना। हलकी सोच के लोगों से बच के रहो। मतलब की मनवार करने वालों से बच के रहो। नहीं सुधरे तो बचेगा कुछ नही और बंचेगी गरूड़ पुराण।
बात करें मजबूरी की, तो देश-दुनिया के नब्बे-पचानवे बंदे किसी ना किसी मजबूरी से दबे नजर आएंगे। कोई हाल-हूलिए के सामने बेबस तो कोई आर्थिक तंगी से।

कोई हालत से मजबूर तो कोई औलाद से कोई शरीर से मजबूत तो कोई आदत-लत से। हम नही सुधरेंगे की कार्यप्रणाली भी इसी में शुमार। कोई व्यक्ति अगर यह दावा करे कि वह हंडरेड परसेेंट सुधरा हुआ है तो अच्छा है। उसके लिए। उसके घर-परिवार के लिए। समाज के लिए। सबके लिए अच्छा है, मगर ऐसा है नहीं। किसी ना किसी में कोई ना कोई खोट रह ही जाती है। यह बात दीगर है कि निन्यानवे परसेंट खूबियों में एक परसेंट कमी दब जाती है। कई बार एक कमी निन्यान्वे परसेंट खूबियों का कूंडा कर डालती है।

हथाईबाजों का कहना-मानना है कि हम लोग वो करते रहे हैं जो नहीं करना चाहिए। इस पर हम नही सुधरेंगे का ठप्पा ठुका हुआ। लोगबाग अक्सर कचरा वही टेकते हैं, जहां- ‘यहां कचरा डालना मना है लिखा होता है। वहीं ‘पिच्च करते हैं जहां थूकणा मना है, लिखा होता है। वहीं मूतते हैं जहां पेशाब करना मना है, उकेरा होता है। देखो कुत्ता मूत रहा है लिखे के नीचे किसी को मूतते देखो और लिखी भाषा का वाचन करो तो बड़ी ढिटाई से जवाब मिलेगा- ‘हम कुत्ता नहीं शेर है।

कोई उनसे पूछे कि शेर हो या चीता-बघेरा। है तो जिनावर ही। हम गाड़ी वहीं खड़ी करते हैं जहां मनाही का बोर्ड टंगा रहता है। यहां तक तो मुंह भींच के आंखें मींच के गिट लिया पर इतकू मामला गंभीर। अति गंभीर। इसमें सुधार नहीं हुआ तो सिधारने का खतरा। सरकार ने चीख-चीख के कहा। नेते-अधिकारी आज भी आगाह कर रहे हैं मगर हम हैं कि मानते ही नहीं।

देश में कोरोना फिर ठाठे मार रहा है। कुछ राज्यों में संक्र मितों की संख्या फिर बढ रही है। लहर ठंडी पडी और टीका आ गया तो हम और ज्यादा लापरवाह हो गए। मास्क को मस्का लगा दिया। हाथ धोना कम कर दिया। देह दूरियां भूला दीं। भीड़ हो या भाड़, क्या फरक पड़ता है। जबकि मुखियाजी ने बार-बार चेताया कि कड़ाई में ढिलाई नहीं, मगर हम नहीं सुधरे। सुधरने के आसार भी नजर नही आ रहे हैं।

हथाईबाजों ने पहले भी हाथ जोड़ के कहा था। दोहराया भी था। आज फिर प्रार्थना है कि सरकारी गाईड लाइन की पालना कीजिए। कहीं ऐसा ना हो कि हमारी लापरवाही एक बार फिर देश को घरों में कैद कर दे। सुधर जाओ वरना सिधारने का खतरा बढ जाणा है।