दोनों हाथों में…

अगर सुधि पाठकों को शीर्षक के आगे छोड़ी खाली जगह को भरने के लिए कहा जाए तो ज्यादातर बंदे वही लिखेंगे जो आप के मन में फूट रहे हैं। ज्यादातर से आगे बढ़े तो हम दावें और यकीन के साथ कह सकते है। ताल ठोक कर कह रहे है कि हंडरेड परसेंट लोग लड्डू का ही भोग लगाएंगे। दूसरी धारा कहे -ना बाबा ना.. तो की होंदा.. होणा-जाणा कुछ नहीं। आगे चलकर हम कह देंगे कि जगह तो लड्डू की ही थी, कोई उस पे अतिक्रमण कर के दूसरे को बिठा दें, तो बात कुछ और है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


अपने यहां जिन कहावतों का चलन-प्रचलन है, उन में से एक है -दोनों हाथों में लड्डू। लड्डू से लबरेज एक और कहावत का जिक्र करने को कहा जाए तो मन में लड्डू फूटना को लिया जा सकता है। लड्डू से हमारी कोई लड़ाई नहीं, ना हम लड्डू विरोधी तत्वों में शामिल। मगर सवाल ये कि जिस महानुभाव अथवा जिन महानुभावों ने इन कहावत की घड़ाई की उन्होने लड्डू को ही क्यूं चुना। सवाल पर किसी को सवाल हो तो वह इसे हमारी जिज्ञासा समझ सकता है। बड़े-सयाने कहते है कि मानखे को अपने भीतर छुपे बच्चे को हमेशा दुलारते-पुचकारते रहना चाहिए। याने कि इंसान का बचपना कभी बूढ़ा ना हो। अस्सी-पिचियासी-नब्बे का होने के बावजूद उसका बचपना खदबदाता रहे।

अल्हडपना कायम रहे। वो पोते-पोतियों और दोहिते-दोहितियों के साथ रमे। खेले। घोड़ा बने। मचले। उस समय उन बच्चों के चेहरे पे जो हंसी-जो खुशी नजर आती है, वो दादू-नानू के पोपले मुंह की मोचें निकाल देती है। दूसरा -मानखे को हमेशा जिज्ञासु बने रहना चाहिए। वो पढ़े। वो सीखे। समझ में ना आए तो पूछ ले। आप यही समझ लो कि हम जिज्ञासु होकर पूछ रहे है कि कहावत के महावत ने अपनी कहावत में लड्डू को ही क्यूं लिया।


मिठाई के बारे में किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं। मिठाई पर पत्रवाचन करने की भी आवश्यकता नहीं। वो टेम गया-जब गिणी-चुणी मिठाई हुआ करती थी। शादी-ब्याह में कै तो नुक्ती कै चक्की। ये दोनों जीमण के सिरमौर। आज वो बात नहीं। दुनिया भर की मिठाईयां बाजार में उपलब्ध। मिष्ठान भंडारमें चले जाओ तो दिमाग चक्करघिन्नी बन जाता है। ये लेवें या वो। वो लेवें या ये। अगर कहावत के महावत चाहते तो लड्डू की जगह किसी और को बिठा सकते थे। कहावत बरसों पुरानी है। इसमें कोई शक नहीं।

यह भी मान लेते है कि उस टेम दो-चारेक मिठाईयों का ही प्रचलन था। उनमें से भी लड्डू का चयन करना हमारी समझ के बाहर। लड्डू की जगह चक्की बिठा देते। जलेबी घूमा देते। नुक्ती से मुठ्ठियां भर देते। मन और लड्डू वाली कहावत पर भी वही सवाल। वहीं जिज्ञासा। भाईसेणों ने मन में लड्डू ही क्यूं फोड़े। कांच फोड लेते। शीशा फोड लेते। लट्टू-बल्व फोड़ देते। लड्डू में कुछ तो है तभी तो उसने कहावतों में भी अहम स्थान प्राप्त कर रखा है।


मोदक के लड्डू शुभकार्यों में प्रथम पूजनीय श्रीगणेश को प्रिय। हर शुभ कार्य में लड्डू का भोग लगाया जाता है। आप किसी भी बच्चे को तीन मिठाईयों के नाम पूछकर देख लो- लड्डू पहले स्थान पर रहेगा। लाडू..पेडा.. जलेबी..। पुराने समय में मोतीचूर के लड्डू जीमण में जरूर बनाए जाते थे। हम ने तो बेटी जन्मोत्सव पर भी लड्डू बांटे वरना पुरानेपंथी बेटा होने पर लड्डू बांटते थे। तीज के लड्डूओं की तो बात ही न्यारी। एक लड्डू पावभर का। हम दो-हमारा एक पेट भर के जीम सकते है। आगे चलकर लड्डूओं ने बहुरूप धारण कर लिया। तिल के लड्डू। बेसण के लड्डू। गोंद के लड्डू। हमने बचपने में फूलिया लाडू बड़े चाव से खाए थे। उन दिनों फूलियां लाडू शाही समझे जाते थे। जब लड्डू इतना महान है तब तो उसे दोनों हाथों में स्थान मिलना-देना या पाना लाजिमी है।


इसका मतलब चित्त भी मेरा पट भी मेरा। इधर भी नफा-उधर भी लाभ। इस हाथ में पांच का नोट उसमें पांच का सिक्का। पर हथाईबाज जिस खाली स्थान को भरने की बात कर रहे है। वहां आप के हिसाब से लड्डू का स्थान तय है, मगर हमारे और आज के हिसाब से यहां वैक्सीन आणी चाहिए।

कोरोना को हराने के लिए हमें हमारी कोवैक्सीन के साथ ऑक्सफोर्ड की कोविशील्ड के इस्तेमाल की मंजूरी भी मिल गई है। हमने इन्हें लगाने का पूर्वाभ्यास भी कर लिया जो सफल रहा। कोरोना ने देश-दुनिया को खूब तडफाया। खूब तांडव मचाया। अब उसकी ओती आ गई है समझो। जिस दिन सरकार हरी झंडी दिखा देगी, टीका ठोकन शुरू हो जाएगा। उम्मीद है तब तक एक और वैक्सीन को मंजूरी मिल जाएगी। ऐसा हुआ तो सिर कढ़ाई में। वरना दोनों हाथों में लड्डू तो है ही..।