इसे कहते हैं-भीर उठना

शीर्षक को अपने-अपने हिसाब से परिभाषित किया जा सकता है। यह कोई आहवान नही है बल्कि ऐसा होता रहा है। यूं कहें कि ऐसा ही होता आया है, तो भी गलत नहीं। थोड़ा बदलाव कर के बताएं तो कहा जा सकता है कि हैडिंग को अपनी-अपनी भाषा में लिखा-पढा-देखा जा सकता है। बंगाली अपनी भाषा में लिख सकते हैं। मलयाली मलियालम में पंजाबी गुरूमुखी में लिख सकते हैं-गुजराती अपनी भाषा में। क्यूं कि हम राजस्थानी है लिहाजा ‘भीर को अपनी भाषा में परोसा गया है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
पहले बात अपने-अपने हिसाब की।

वो जमाने शायद लद गए जब कोई बात सामूहिक हितों को लेकर की जाती थी। बड़े-सयाने लोग कहते हैं कि जहां सामूहिक हितों की बात आती है, वहां व्यक्तिगत स्वार्थ गौण हो जाता है, पण आज ऐसा नही हो रहा। लोग हर किसी मसले-मुद्दे में सबसे पहले अपना हित ढूंढते हैं। अपना स्वार्थ तलाश करते हैं। हमने ऐसे लोग भी देख रखे हैं जो अपने चाराने के लिए अगली पार्टी का हजारों का नुकसान करने से बाज नहीं आते। ऐसे लोग भी हैं जो हवन करते समय हाथ जलाने से पीछे नही हटते। ऐसे लोग भी हैं जो किसी जीव-जिनावर को बचाने के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा देते हैं। भले ही उनकी संख्या कम है, मगर है जरूर। ऐसे लोगों के कारण ही दुनिया टिकी हुई है। वरना कभी का प्रलय हो जाता। कयामत आ जाती।


हिसाब-किताब का अपना हिसाब है। अपनी किताब है। इसे खाता कह दो या एकाउंट। बात एक ‘इज। कान इस हाथ से पकड़ो या उस हाथ से ‘ओती तो कान की ही आणी है। कई बार मन में विचार आता है कि कान को हाथों में लपेटने वाले ने कान को ही क्यूं चुना। हाथों से शरीर के दीगर अंग भी पकड़े जा सकते थे। वो कहते-‘नाक इस हाथ से पकड़ो या उस हाथ से, क्या फरक पड़ता है। वो कहते टांग इस हाथ से पकड़ो या उस हाथ से, कुछ फरक नही पडऩे वाला। भाईजी ने हाथों को कान से जोड़ा इससे लगता है कि वो जरूर कान विरोधी रहा होगा। कान प्रेमी भी हो सकता है। विरोधी इसलिए कि दीगर अंगों को छोड़कर कान पर प्रहार किए गए। प्रेमी इसलिए कि नाक-टांग-अंगुली-अंगुठे के छोड़कर कान को तवज्जोह दी गई। इसमें हिसाब भी है और किताब भी। जिसे लगाना है, लगाता रहे। हमारे बही-खाते खुल्ले खाले में पड़े हैं जिसे खंगालना है, खंगाल ले।

कुछ मिल जाए तो हमें भी बताइयो। हम तो चाहते हैं कि आइटी या सेल टैक्स वाले हमारे खातों की जांच करे। खातों में कुछ मिले या ना मिले यह दूर की बात। कम से कम लोगों में यह संदेश तो जाएगा कि हथाईखोर कड़के नही है। हम तो चाहते हैं कि हमारे बैंक लॉकर्स भी खोले जाएं। हो सकता है जर्दे की पांच-पच्चीस पुडिय़ों और चूने की दस-बारह-ट्यूब्स के अलावा और कुछ मिल जाएं। राज की यह बातें किसी को बताइयों मति। यह माल लॉकर्स में लॉकडाउन के दौरान रखा गया था। इस को लेकर इडी वाले अपने सोचें तो सोचें यहां तो खुल्ला खेल खिलाड़ी का। सब को अपने-अपने हिसाब से सोचने-समझने की पूरी आजादी है। शीर्षक पे भी यही टोटका लागू होता है। क्यूंकि हम राजस्थानी है लिहाजा ‘भीर को तवज्जोह दी अन्य भाई-बांधव इसे अपनी भाषा में ट्रांसलेट कर सकते हैं।


‘भीर बोले तो अचानक सचेत होना। नींद में से एकदम जाग कर सक्रिय होने का उपक्रम करना। भीर बोले तो कोई बात ‘पिंडÓ में आना। भीर उठने के माने अपने-आप को जागरूक साबित करना। शासन-प्रशासन ऐसी हरकतें करते रहे हैं.. कर रहे हैं.. उम्मीद है कि भविष्य में भी ऐसा होता रहेगा। कारण ये कि ऐसा करने की नींव आजादी के बाद से ही डाल दी गई थी। अब जिस को जैसा अवसर मिलता है, उठा लेता है। पांच-पच्चीस दिन तो धां-धूं चलाने का नाटक किया जाता है, उसके बाद पहले जैसी मरघटिया शांति। ना कोई पूछने वाला-ना कोई बोलने वाला। पूछे तो जवाब देने वाला कोई नहीं। बोले तो सुनने वाला कोई नहीं। कोई सुन भी लें तो दो कानों की सौगात काम आ जाती है। इस कान से सुना और दूसरे कान से बाहर निकाल दिया।


हथाईबाज सरकारी क्षेत्र में भांत-भांत के ‘भीर उठते देख रहे हैं। उसकी सब से हरी-भरी और ताजी मिसाल ‘शुद्ध के लिए युद्ध। याने कि मिलावटियों के खिलाफ कार्रवाई। हैरत की बात है ना कि जिन मिलावटियों को मुर्गा बना के रखना चाहिए, उनके खिलाफ कार्रवाई को ‘युद्ध का नाम दिया जा रहा है। आज असली चीज मिलती कहां है। खान-पान की हर वस्तु में मिलावट। मिर्च-मसाले नकली। घी-तेल नकली। चाय में मिलावट। मावा नकली। दूध में मिलावट। दवाइयां नकली। करेंसी नकली। ऐसा आज से नही अरसों-बरसों से हो रहा है। पहला-दूसरा मामला पकड़ीजते ही मिलावटखोरों को सड़क पे मुर्गा बना दिया होता तो कार्रवाई को ‘युद्ध का नाम देने की जरूरत ही नही पड़ती। इसके साफ जाहिर है कि पहले मिलावटखोरों और जमाखोरों को पनपाओ। कालाबाजारियों को सींचों और फिर अपने आप को जागरूक बताने का नाटक करो। सरकारचंद-प्रशासनमल भले ही इसे कुछ भी कहे, हथाईबाज इसे ‘भीर उठना ही कहेंगे। साथ में आग्रह कि ऐसे ‘भीर निरंतर उठते रहने चाहिएं।