जिणना जैड़ा पड्या सुभाव, जा ‘सी जीव सूं..

हमारी तो अब भी यही सलाह है कि उसे सुधर जाना चाहिए। उसका सुधरना उसी की सेहत के लिए अच्छा होगा, वहां के लोग भी ठीकसर रहेंगे। वो सुधरेगा तो खुद भी चैन-शांति के साथ बसर करेगा और अड़ोसी-पड़ोसी भी बैचेन नहीं रहेंगे। अगर ऐसा होता है तो एक रूपया हमारी ओर से। मगर हमें उसके सुधरने पे शक है। जिणना जैसा पड्या सुभाव.. जासी जीव सूं। वैसा नही होता है तो हाल बद से बदतर हो जाणे हैं। उसके आसार भी नजर आने लग गए हैं। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


सुधरना और बिगडऩा। बिगडऩा और सुधरना। इन दोनों पे पत्रवाचन किया जाए तो डाफाचूक होने के पूरे आसार। अपने यहां भांत-भांत के विषयों पे शोध करने की परंपरा रही है। फलां विश्व विद्यालय के छात्र के फलां विषय पर ढीमका सर के निर्देशन में शोध कार्य पूरा करने पर डाक्टरेट की उपाधि दी गई। ऐसे समाचार अखबारों में साया होते रहते हैं। शोधार्थी अपनी रूचि के विषयों पर शोध कर परचे तैयार करते हैं। अपने यहां विषय विशेष पर सम्मेलन आयोजित करने का रिवाज भी है। कोरोनाकाल के कारण अभी तो कई गतिविधिएं ठप है। कहीं कुछ हो भी रहा है तो वर्चुअल या फिर ऑन लाइन अथवा वीसी के जरिए अन्यथा दो गज की दूरी-मास्क है जरूरी। घर में रहिए-सुरक्षित रहिए। हमारी शोधार्थियों को सलाह है कि उन्हें ‘सुधार-बिगाड़’विषय पर शोध करना चाहिए।

इस विषय पर शोध की खासी संभावनाए है। विषय भी नया है। लोगों की रूचि भी इसमे हो सकती है। वरना वही घिसे-पिटे विषय। वही पुरानी रिकॉर्र्ड। इसका शोध पूरा हुआ तो थीसिस उसके काम आ गई। उसका काम निपट गया तो शोध पत्र इन के हवाले कर दिया गया। नीचे का पेरा ऊपर-ऊपर का नीचे। बीच का पेरेग्राफ एंड में-एंड का बीच में। इन का शीर्षक ये-उनका वो। लो, नया शोध पत्र तैयार हो गया। यह आइडिया हम दे रहे हैं, ऐसा नही है बल्कि पिछले लंबे समय से ‘तेरा उसको-उसको तेरा अरपण का खेल चल रहा है। आम भाषा में इसे-‘इसकी टोपी उसके सिर कहा जाता है। हथाईपंथियों का कहना है कि सुधार और बिगाड़ एक गाड़ी के दो पहिए हैं जो साथ-साथ चलते भले ही ना दिखे मगर एक-दूसरे के पूरक जरूर है।

इसे और आसान तरीके से परिभाषित किया जाए तो सुधार और बिगाड़ रेल की पटरियों के समान हैं जो साथ-साथ चलते तो हैं पर साथ-साथ रह नही सकते। एक के बिना दूसरे का और दूसरे का एक के बिना कोई वजूद नहीं। शोध का विषय ये कि पहले कौन आया, ‘ए सुधार या बी बिगाड़। कोई इस सवाल की तुलना अंडा और मुर्गी से करे तो करे। जब उस बहस में टेम पास हो सकता है तो इसमें क्यूं नहीं। जैसे उसमें दो धाराएं-वैसे इनमें। कोई कहेगा मुर्गी पहले आई कोई कहेगा अंडा। तीसरा खेमा मुर्गे के पक्ष में। कहेगा-‘मुर्गा नही होता तो अंडा कहां से आता। यह टोटका सुधार-बिगाड़ पर लागू होता है। बिगाड़ के बिना सुधार अस्तित्वहीन और चारों तरफ सुधार का परचम लहराए, ऐसा संभव ही नही। जब रामजी के त्रेता युग और किशनजी के द्वापर युग में ‘बिगाड़ हो चुका है तो घोर कलयुग के क्या कहने। कलयुग के साथ कोरोनायुग और स्वार्थसिद्धि युग भी तो चल रहा है।


हथाईबाज जानते हैं कि वो जिसे सुधरने की सलाह दे रहे हैं वो सुधरने वाला नही है। वो कुत्ते की पूंछ की मानिद है। उसने कभी ना सुधरने की कसम उठा रखी है। वहां जितने भी पीएम-सीएम-जीएम-डीएम अथवा केएम हुए सभी ने ऊपरी तौर पे ना सही अंदरखाने यह सौगंध खाई कि वो कभी नही सुधरेंगे। उनका देश कभी नही सुधरेगा। वो भारत से पंगा लेते रहेंगे, भले ही बार-बार पिटना पड़े। बार-बार मुंह की खानी पड़े। उसने मुंह के साथ माथे और हाथ-टांग की भी खाई पर सुधरा नहीं। सुधरने की रत्ती भर गुंजाइश भी नही है। फिर भी सलाह है कि सुधर जाए तो खुद उसके लिए ठीक रहेगा वरना फिर पिटेगा। बार-बार पिटेगा। पिटना-ठुकना उसकी किस्मत में।


बात पाकिस्तान की। उसने हमारे साथ क्या-क्या किया, आखी दुनिया जानती है। हमने खूब भुगता। हमने खूब सहा। चाहते तो ऐसा भचीड़ मारते कि विश्व के नक्शे से उसका नाम-ओ-निशान मिट जाता मगर ठोकाठुका के छोड़ दिया। इतना कुछ होणे के बावजूद सलाह कि अब भी टेम है-सुधर जाए वरना गत और बिगड़ जाणी है। आज पाकिस्तान की हालत बद से बदतर हो रही है। घर में नही दाने-अम्मा चली भुनाने वाली स्थिति। महंगाई के मारे लोग कूक रहे हैं। ऐसी कोई समस्या नही जिनका गोदाम वहां छिलमछिल ना हो। आतंकिस्तान आकंठ कर्ज में डूबा हुआ है। विश्व समुदाय के समक्ष झोली फैला कर करजा माफ करने और मदद की गुहार कर रहा है। दानदाताओं के समक्ष गिड़गिड़ा रहा है। हम ठहरे दयालु-किरपालु। हमारी ओर से एक रूपया। हम सब एक-एक रूपया देवें तो एक सौ तीस करोड़ रूपए पक्के। हम रहम दिखा भी दें। हम दया कर भी दें, पर वो सुधर जाएगा इसकी संभावना रत्ती भर नहीं। ऐसे भी वही कहावत सामने आती है जिणना जैड़ा पड्या सुझाव..जा ‘ सी जीव सूं। मालिक उसे
सद्बुद्धि दे।

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