
कोई यह ना समझे कि गलती से मिस्टैक हुई गवा। लिखना कुछ और था, लिखिज कुछ और गया। ऐसा वहम तर्ज और तरन्नुम देख-सुन कर हुआ। वही तर्ज.. वही तरन्नुम। उसके पीछे ‘ते और इसके पीछे भी ‘ते। वहां भी रहो और यहां भी रहो। वहां तीन अक्षर और यहां चार। तरन्नुम के चक्कर में ऐसा लगा जैसे वाकई में गलती हो गई हो। जागते रहो.. की जगह तलाशते रहो.. लिख दिया हो। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
आप मे से किसी ने तलाशते रहो.. की राग सुनी या नही सुनी, जागते रहो की तरन्नुम तो जरूर सुनी होगी। कई रागे कई लोगों के काम-धंधे से जुड़ी हुई है। उन रागों का सीधा संबंध उनके काम से। उनकी रोजी से। उनकी रोटी से। साक वाले का अपना राग। दूधिए का अपना। भंगार वाले की अपनी तर्ज। पेपर वाले की अपनी। जागते रहो… की तर्ज भी उनमें से एक। उसमें तलाशते रहो का सुर जोड़ा तो कई लोग इस सोच में पड़ गए होंगे कि जागते रहो.. की जगह तलाशते रहो.. छप गया होगा। लेकिन ऐसा नही है।
हमने तलाशते रहो.. ही लिखा और और तलाशते रहो ही छपा। जागते रहो.. की राग रात को पहरा देने वालों से जुड़ी हुई है। अब तो खैर रात को पहरा देने वाले जंग बहादुर डंडा पटक कर या सिटी बजा कर फेरी लगा के निकल जाते हैं वरना एक जमाने में वो-‘जागते रहो.. की लहरियां बिखेरा करते थे। जिस रोड-गली से गुजरते- जागते रहो..’ की लहरियां बिखेरते। कई लोग मजाक में बुदबुदाते भी थे- हमें जागना होता तो तुम से फेरी क्यूं लगवाते।
वही तर्ज-तरन्नुम ‘तलाशते रहो.. में सुनाई दी तो अचकच होना स्वाभाविक था, पर ऐसा है नही। दोनों के रास्ते अलग। दोनों की धाराएं अलग। तर्ज एक जैसी होने का मतलब यह नही कि पेन स्लीप हो गया होगा, या कि प्रूफ मिस्टैक रह गई होगी। होना था-जागते रहो.. हो गया तलाशते रहो। इतना तो हम भी सचेत और सजग है कि इतनी बड़ी गलती ना होने दें। इतना सतर्क रहने के बावजूद भूल हो जाए तो हो जाए। कौन सा कोई फांसी पे चढा देगा। गलती होती तो स्वीकारने में कैसी शरम मगर हमें तलाश ही थी, अब यह तलाश कब-कैसे और कहां जाकर थमेगी-यह भविष्य की गर्त में है।
तलाश के माने खोजना। खोजना के माने ढूंढना। ढूंढना के माने तलाशना। पहली तलाश किस ने की। किसकी हुई। कब की। काय कू की। अकेले की या दल-बल के साथ की। इसके बारे में किसी के पास कोई अधिकृत जानकारी नही। अधिकृत जानकारी के माने ये कि हम उसकी मिसाल देकर बता सकें कि फलां द्वारा लिखी गई पुस्तक के पेज नंबर इत्ते पे लिखा है कि पहली-तलाश फलां ने फलां ईस्वी में शुरू की थी और फलां सन् में पूरी हुई। तलाश को खोज से जोड़े तो दो-चारेक उदाहरण मिल जाएंगे।
कहते हैं कि चीनी यात्री फ ाहियान ने भारत की खोज की थी। अव्वल तो भारत खोया कहां था जो ढाई फुट के चीनी ने खोज लिया। दूसरा भारत कल भी सीना तान के खड़ा था-आज भी खड़ा है और कल भी खड़ा रहेगा। सात समंदर पार खड़े लोग बता देते है कि वो खड़ा भारत। उसे खोजने की जरूरत कहां। कोई टोरा मारता है कि कोलंबस ने भारत की खोज की थी। कोई भारत एक खोज के तुक्के को पकड़ के बैठा है। हमारे हिसाब से पहली तलाश भगवान राम ने सीता मै की की थी और रावण वध के पश्चात चौदह साल बाद अयोध्या लौट आए थे। इससे पहले किसी ने किसी को तलाश हो तो बता द्यो।
खैर, अपन को फिलहाल पीछे नही जाणा। आगे अगर कोई तलाश है तो है.. उसे पूरी करने के भरसक प्रयास। फिर हरि इच्छा। तलाशें भतेरी। कोई किसी को तलाश करता है, कोई किसी को। यूं देखा लो कि प्रत्येक मानखा किसी ना किसी की तलाश में लगा रहता है। पर हथाईबाज जिसे तलाशने की बात कर रहे हैं उसकी सूई संभावनाओं पर अटकी पड़ी है। अपने छोटे सरकार वैभव गहलोत राजस्थान क्रिकेट संघ का अध्यक्ष बनने के बाद जोधपुर के बरकतुल्लाह स्टेडियम का तीन-चार बार फेरा लगा चुके है।
जब मन उचकता है, अपने चंगुओं-मंगुओं के साथ पहुंच जाते है। साथ चलने वाले सरकारी अफसर भले ही बदले होंगे वरना वही मुनीम-वही गुमास्ते। उन्हें छोटे सरकार इसलिए कहा कि वो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के पुत्तर है। वो जब-जब फेरे पे आए-एक ही रट्टा मारा-‘स्टेडियम को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनवाया जाएगा। वो जब-जब फेरी लगाने आए-एक ही राग उगला-‘जोधपुर में आईपीएल और अंतरराष्ट्रीय मैच की संभावनाएं तलाशी जाएंगी।
हर बार यही रट्टा। हर बार यही तर्ज। हर बार यही तरन्नुम। जोधपुर वाले भी चाहते हैं कि यहां अंतरराष्ट्रीय स्तर के क्रिकेट मुकाबले हों। आईपीएल के दो-चार धमाके हों। चौके-छक्के उडें। शतक ठुके। रिकॉर्ड बने। मगर उनकी रिकॉर्ड ‘तलाशने पर ही अटकी हेुई है। हम तो चाहते हैं कि तलाश पूरी हो, तलाश के साथ हमारी और शहर के क्रिकेट प्रेमियों की हसरत भी पूरी हो। फेरे इसी तरह फोरे साबित होते रहे तो ‘तलाशते रहो.. के सुर दूर तक सुनाई पड़ जाएंगे। आगे चलकर यह राग तलाशते रह जाओगो.. में भी बदल सकती है। लिहाजा तलाश पूरी करो।