जिंदगी हर कदम.. इक नई जंग है…

जिस बंदे ने जिंदगी को जंग करार दिया, वो अपनी जगह पे एकदम सही था-सही है और सही रहेगा। उसी बंदे ने आगे कहा-‘जीत जाएंगे हम.. यह भी हंडरेड परसेंट सही हो सकता है। आप देखिए। आप गौर कीजिए कि सही था-है और रहेगा तथा सही हो सकता है, में जमीन-आसमां का फरक है या नही। रूटीन में पढ लोगे तो कोई अंतर महसूस नही होणा और अगर गंभीरता से गौर करोगे तो पता चल जाएगा कि दोनों में कितनी दूरियां हैं। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


जिंदगी हर कदम इक नई जंग है, इसमें तो कोई लोचा नही। इस कड़वी सच्चाई को जिसने हरफों में उतारा, उसे लख-लख बधाई। वो बंदा कितना अनुभवपंथी होगा। वो बंदा कितना तजुर्बेकार होगा। वो बंदा कितना स्याणा और समझदार होगा जिसे एक जनम में पता चल गया कि जिंदगी एक जंग है वरना लोग आते हैं। खाते हैं। पीते है। चलते हैं। सोते है। ऊंघते हैं। जितना खपना है-खपते हैं।

कमाने के लिए खुद को खपा देते हैं। जिसे मिलना है-मिलता है। जिसे नही मिलना है, नही मिलता। किसी को ज्यादा मिलता है-किसी को कम। इसी चक्कर में इंसान जमात आखिर में जिंदगी की जंग हार जाती है। सच यह भी है कि जो आया है, वो जाएगा। जीवन चक्र चलता रहा है और चलता रहेगा। इसके माने यह तो सही है कि जिंदगी हर कदम इक नई जंग है। बात करें जीतने की तो इसके आगे ‘सही हो सकता है इसलिए लगाया कि कई लोग जीवन से निराश हो जाते हैं। संघर्ष करते-करते वो इतने पस्त हो जाते हैं कि जीने की इच्छा ही खतम हो जाती है।


संत-सुजान कहते हैं कि जिंदगी दुखों से भरी एक रेलगाड़ी है जिसमें खुशियों के स्टेशन लगते हैं। इस पर गंभीरता से गौर किया जाए तो जीवन की सच्चाई नजर आएगी। जीवन में खुशी के पांच-पच्चीस पल आते हैं उसके बाद फिर वही दुख का अंधियारा। आदमी चाहे तो खुशी के उन पलों को यादगार बना सकता है। खुशी के वो चंद लम्हें जिंदगी महका सकते हैं, पर ऐसा हर किसी के साथ नही होता। इंसान किस-किस से और कब तक लडेगा शायद यही सब देखकर। सुन कर। भुगत कर तजुर्बेकारों ने जिंदगी को जंग करार दिया।


जंग भांत-भांत की। युद्ध भांत-भांत के। लड़ाइयां किसीम-किसीम की। सबके सामने-‘इस दरवाजे जाऊंगा..बंदूक की गोली मारूंगा.. वाली स्थिति। हमने बचपने में मछली.. मछली.. खेल खेला था। बच्चे घेरा बना के खड़े हो जाते। एक बच्चा घेरे के बीच में। बच्चों की जुबान पे खेल गीत मछलीजी.. मछली.. तेरे तालाब में कितना पानी.. इस पर बीच में खड़ा बच्चा पिंडली-घुटने या कमर पर हाथ रख के उसी राग में जवाब देता-‘हम बराबर इतना पानी..। खेल-खेल में बच्चा जब कृत्रिम तालाब में पूरा डूब जाता तो घेरे से बाहर निकलने के लिए तड़बड़ीजता और कहता-‘इस दरवाजे जाऊंगा..।

जवाब में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर घेरा डाले बच्चे कहते-‘बंदूक की गोली मारूंगा..। इस प्रकार अंदर वाला बच्चा कभी इस हाथ की ओर मुंह करता है कभी उस हाथ की ओर। बाहर भी हथियार बदलते रहते। कभी छुर्री लेकर मारूंगा तो कभी चाकू लेकर। इस बीच जो हाथ ढीले दिखते, अंदर खड़ा बच्चा उन्हें छुड़ा कर बाहर निकल आता। ऐसा लगता है मानो उस खेल में जीवन चक्र छुपा हुआ है। जिसमें दुख सहने की हिम्मत नही होती वो घेरे के अंदर और जिसने दुखों पर विजय पा ली वह घेरे से बाहर। बोलो-‘सियावर रामचंद्र की-जै।


आज जब हम अपने आप को लड़ाका बना देख रहे हैं तो लगता है कि इंसान जमात जंग लडऩे के लिए ही पैदा हुई है। जीत-हार बाद की बाद पहले लड़ो। पहले युद्ध करो। घर में युद्ध-बाहर युद्ध। आगे बढने के लिए युद्ध। सड़क पर चलने के लिए युद्ध। अस्पतालों में युद्ध। बाजारों में युद्ध। चौक-चौबारों में युद्ध। आपस में युद्ध। नौकरी के लिए युद्ध। काम-धंधे में युद्ध। पास-पड़ोसी में युद्ध। जात-बिरादरी में युद्ध। बिजली-पानी के लिए युद्ध। साफ-सफाई के लिए युद्ध। पूरा विश्व इन दिनों कोरोना से युद्ध लड़ रहा है। एक विषाणु ने आखी दुनिया को हिला के रख दिया।

वैक्सिन आएगी जब आएंगी तब तक युद्ध चालू हाए। कितनी हैरत की बात है ना कि हमें शुद्ध के लिए युद्ध करना पड़ रहा है। शासन-प्रशासन हमेशा ऊंघते रहते है। कभी-कभार ऊंघ टूट जाए तो शुद्ध के लिए युद्ध का नाटक। हमें शुद्ध वस्तुओं के लिए युद्ध करना पड़े इससे ज्यादा शरम की बात भला और क्या हो सकती है। इन सब के बावजूद-जिंदगी हर कदम इक नई जंग है..। इसे जीतना है-हर हाल में जीतना है। तभी तो हम योद्धा कहलाएंगे। हमें कोरोना से लडऩा है और अनुशासन मे रह कर जीतना है।