विधायक घोड़े या बकरे

हमें पता था कि उसे होली के हुड़दंग के रूप में पेश किया गया था। उस का किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए, पर हमें लग गया। वो पहले हमारे बीच के फिर उस जमात के। उस जमात के भी कब तक। भाई, जो नौकरी तुम कर रहे हो, वह जनता ने दी हुई है। जिस दिन चाहेगी-छीन लेगी। उसके बाद आओगे तो हमारे बीच ही। समझदारी इसी में है कि जनता के बन के रहो। अब दूसरी बात सुनी तो और ज्यादा हैरत हुई। वो विधायक हैं या घोड़े। वो विधायक हैं या बकरे। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
अपने यहां के अखबार होली पर ‘धमाल विशेषांक निकालते हैं। क्लब-समाजसेवी संगठन-स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थी और मौहल्ला विकास समितियां भी हंसी-ठिठोली करते है। अखबारों में व्यंग्यबाण चलाते टाइटल्स परोसे जाते हैं। क्लब के पदाधिकारी भी ऐसा करते हैं। अखबारों में तंज और व्यंग्य छापे जाते हैं। दुहों और लेखों की भरमार। चुटकलों में किरदार बदल के नेतों को घुसेड़ा जाता है। सब से एंड में गुलाल और अबीर के टीके के साथ बुरा ना मानो होली है। बाकायदा सूचना छापी जाती है कि होली की ठिठोली में यह सब गोलमाल किया गया है। किसी को बुरा लगे तो लगे हमने इस बार भी वही किया जो हमेशा करते हैं। आप सभी को होली की बधाई।
ऐसे अंकों में नेतों, डॉक्टरों, पुलिस वालों, प्रशासनिक अधिकारियों, नगर निगम और जेडीए वालों, समाजसेवियों, पत्रकारों, साहित्यकारों, कलाकारों और अन्य नामचीन बंदों को लपेटा जाता है। होली विशेषांक में किसी को स्थान मिलना गर्व की बात मानी जाती है। लोग चला के फोन करते हैं-‘भाई हमें भी लपेटना। कोई कहता है-हमें भी रंगना। किसी ने कहा-‘सर, हमें भी याद करना। वैसे ही ठिठोली अंक में जोधपुर के एक विधायक को पपलू बनाकर चुटकुला परोसा गया था। पेश हैं-
‘विधायक फलाणचंद जी जयपुर में अपने फटफटिए पे दो जनों को पीछे बिठा कर लाल कोठी की ओर से गुजर रहे थे तभी यातायात पुलिस अधिकारी ने उन्हें रोक कर साइड में किया और हड़काऊ भाषा में बोला-‘स्कूटर पे तीन-तीन लोग फर्राटे मार रहे हो, शरम नहीं आती। किसी ने हेलमेट भी नही पहन रखा है। थोड़ी देर घूर कर उसने अपने मातहत सिपाही से चालान बनाने को कहा। तभी विधायकजी आगे आए और बोले-‘सर, लोग तो ये दो ही हैं, मैं तो विधायक हूं।
हमें पता है कि वह ठिठोली थी, मगर उसमें तंज भी तो छुपा था। इसके माने ये कि विधायक बनने के बाद फलाणचंदजी हमसे दूर हो गए। वो लोग जनता के नही रहे। विधायक बन कर अपने आप को हम से ऊपर मान बैठे। उन्हें विधायक किस ने बनाया? हम-आप ने। वो कहां से निकले? हम-आप के बीच में से। वो कौन? हमारे प्रतिनिधि और वो एमएलए क्या बन गए, खुद को लोगों से दूर कर लिया। लानत है। एक हिसाब से देखा जाए तो हो भी यही रहा है। विधायक-मंतरी बनने के बाद वो अपने लोगों से ‘कट जाते हैं। अपने ही लोगों ने उनसे मिलने के लिए इंतजार करना पड़ता है। पहले वो लोगों के पीछे भागते थे-फिर लोग उनके पीछे भागते हैं। भूल जाते हैं कि वो जनता के नौकर है। जो जनता उन्हें चढा सकती है, वो जनता उनको धोबी पटका भी दे सकती है।
अब हमें विधायक अलग ही रूप में नजर आ रहे हैं। होली अंक में उसने अपने आप को लोगों से ऊपर मान कर खुद को विधायक बताया अब वही विधायक कभी घोड़े बताए जा रहे हैं तो कभी बकरे। हम बिचारे कभी इतकू देखें-कभी उतकू। समझ नही आता कि उन्हें क्या माने।
राजनीति में उठक-बैठक होना या करना अथवा करवाना नई बात नही है। किसी की सरकार संकट में पड़ती है-अथवा पटकी जाती है तो विधायकों की बाड़ाबंदी की जाती है। सामने वालों पर विधायकों क ी खरीद-फरोख्त का आरोप लगाया जाता है। हॉर्स टे्रडिंग और घोड़ामंडी के इल्जाम लगाए जाते हैं। कोई बिकता है कोई खरीदता है। सुर फूटते हैं-‘विधायक बिकता है, बोलो खरीदोगे..। अब विधायकों की पदावन्नति होती नजर आ रही है। हिसाब से उन्हें घोड़ों से हाथी या शेर बनना या बनाना चाहिए मगर उनकी तुलना बकरों से की जा रही है। ऐसा बकरामंडी के रहवासी किसी कुरेशी-फुरेशी ने नही किया अथवा कहा वरन राज्य सरकार के मुखिया कह रहे हैं। राज्य में हो रही कथित सियासी उठक-बैठक पर उनका आरोप है कि सामने वाले विधायकों को बकरों की तरह खरीदने की कोशिश कर रहे हैं।
उनके इस उवाच के बाद आम लोग हैरत में। अव्वल तो ये कि विधायक बिकते क्यूं हैं। वो एमएलए है या बिकाऊ माल। दूसरा ये कि वो विधायक हैं, घोड़े हैं या बकरे। देखते है कि घोड़े और बकरे आने वाले कल-कलों में क्या गुल खिलाते हैं। हमें तो हालात अच्छे नजर नहीं आ रहे हैं।