राष्ट्रहित,राज्य हित पर हावी होता जातिहित

● देश के राजनेताओं तथा मतदाताओं की गिरती मानसिकता लोकतंत्र के लिए घातक, ● कहां से कहां आ गये हम

जब देश आजाद हुआ तो स्वतंत्रता सेनानियों ने बहुत से सपने देखे थे,भारत में लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था की शुरुआत हुई। संविधान के प्रावधानों के तहत निर्वाचित सरकारों ने अपने अपने कार्यकाल पूरे किये। यह भारतीय लोकतंत्र का शैशवकाल था।जिस तरह बालक के मन में हजारों सपने होते है उसी प्रकार हमारे राजनेताओं की आंखों में भी अनगिनत ऐसे सपने थे जिन्हे पूरे करने के लिए उन्होने भरसक प्रयास किये। प्रथम निर्वाचन के समय सबसे बड़ा मुद्दा था, जागिरदारों से छुटकारा तथा हर तबके के गरीब और किसान का विकास,गावों का विकास और देश की सीमाओं की सुरक्षा । धीरे धीरे लोकतंत्र व्यस्क होता गया और चुनावों के मुद्दे भी बदलकर अपनी मंजिले तय करते गये।कभी इस देश के राजनेताओं ने देश को विकसित राष्ट्र बनाने का मुद्दा भी अपनाया था।विकास,गरीबी हटाओ, आदि मुद्दों को लेकर विभिन्न दलों की सरकारें बनती गई और उन्होने अपने अपने तरीके से देश के विकास में सहयोग किया। फिर आई लोकतंत्र की युवावस्था इस दरम्यान,समाजवाद, आरक्षण छुआछूत, राम मंदिर जेसै मुद्दों के आधार पर राजनेताओं ने चुनाव लड़ा और भारतीय मतदाताओं ने उन्हे भरपूर आशिर्वाद दिया तथा देश तथा राज्यों की बागडौर उनके हाथों में दी। भई आप शासन करो और हमें आरक्षण दो। बस यहीं से देश के लोकतंत्र में राजनैतिक दलों की मानसिकता का पतन प्रारम्भ हुआ साथ ही देश के मतदाताओं की मानसिकता भी गिरती गई। इस काल में धार्मिक उन्माद अपने चरम पर रहा, दंगे फ़साद हुए। जगह जगह राष्ट्रीय सम्पत्तियों को नुकसान पहुंचाना प्रारम्भ हुआ, राष्ट्रहित गौण होता गया तथा देशवासी स्वहित को प्रधानता देने लगे, राजनेताओं ने अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की निति का अनुसरण करते हुए अपनी कुर्सी को बचाने हेतु लोगों को लड़ाने हेतु पूरे प्रयास किये। लोकतंत्र की जवानी दिवानी हो गई। अच्छे बुरे की पहचान खत्म हो गई। हर तऱफ एक ही शोर सुनाई देने लगा। मैं और मेरा का भाव हावी होता गया तथा हम का भाव ख़त्म हो गया। राजनेताओं ने अब इस देश के मतदाताओं गिरती मानसिकता को भांप लिया तथा इन्हे मुफ़्तखोर बनाने हेतु ऐसी ऐसी योजनाएं प्रारम्भ की जिनसे भारतीयों के मुंह म़ुफ्तखोरी का खून लगा और जो मत अमुल्य था वो बहुमुल्य हो गया। चुनावों के दौरान श़राब, रूपये, लेपटाप, साईकिलें बांटने का सिलसिला शुरू हुआ। आरक्षण को हर राजनैतिक दल बढाता गया, भारतीय समाज को जातियों में बांटा जाने लगा, जातियों का वर्गीकरण होने लगा। देश में गरीबी हटाओ, हरित क्रान्ति, शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, सुरक्षा जेसै मुद्दे गौण होते गए तथा जातिवाद हावी होने लगा। विभिन्न जाति समुदायों के राजनेताओं ने अपने नये राजनैतिक दलों का गठन किया तथा अपने अपने झन्डों के नीचे चुनाव लड़कर सरकारें बनाई। अन्य जाति समाजों के मन में डर का भाव पैदा हुआ। लोग असुरक्षित महसूस करने लगे।
लोकतंत्र युवावस्था से प्रोढावस्था को पार करके अब वृद्धावस्था में पहुंच गया। आज प्रत्येक राजनैतिक दल प्रत्याशियों का चुनाव जातिगत मतदाताओं की संख्या के आधार पर करने लगा, लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ जातिगत आंकड़ों के आधार पर अपने चुनावी आकलन छापने लगा, आज 2023 के राजस्थान विधानसभा चुनावों में चहुंओर जातिवाद का बोलबाला दिखाई दे रहा है, जाति विशेष के मतदाता अपनी जाति का मुख्यमंत्री बनाने के सपने देख रहे है।अपनी जाति का विधायक, अपनी जाति का प्रधान, सरपंच, प्रशासनिक अधिकारी। सब कुछ अपनी जाति के।
राष्ट्रीय राजनैतिक दल भी जाति के आधार पर ही उम्मीदवार खड़े कर रहे है। जाति के आधार पर टिकटों का बंटवारा हो रहा है। हर जाति के लोग अपनी जाति का प्रतिनिधित्व ज्यादा से ज्यादा लेना चाहते है। हमारी सोच कहां से कहां पहुंच गई। देशहित, राज्यहित, ग्रामहित पर जातिहित हावी हो गया।
क्या यही स्वच्छ लोकतंत्र है जहां चुनाव,हिन्दू मुसलमान, जाट राजपूत, अगड़े पिछड़े, के आधार पर लड़े जाये? जहां राजनेता राज्यकोष को खुलेमन से फ्री बांटे? जहां के मतदाताओं की नियत केवल फ्री की वस्तुओं, सुविधाओं से आकर्षित हो या फिर चंद राजनेताओं को सत्तासीन करने के लिए भारतीय समाज को जातिवाद के आधार पर बांटना स्वीकार करके अपना अमुल्य मतदान करे?
इसबार राजस्थान विधानसभा के चुनावों के अभी तक के हालातों को देखकर मुजे तो ऐसा लग रहा है कि आने वाला समय लोकतंत्र का बुढापा बिगाड़ने वाला है। हम आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मनाकर खुश हो रहे हैं परन्तु इस आजादी के साथ साथ लोकतंत्र के साईड इफेक्टों को ऩजर अन्दाज भी तो नहीं कर सकते। प्रभु सबको सद्बुद्धि दें।
क्रमशः……
___भवानीसिंघ राठौड़ ‘भावुक’

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