एक हूर-हजार लंगूर

चाहते तो क्या से क्या हो जाता। माल ही माल। कमाई ही कमाई है भईया। मगर ऐसा नहीं हुआ। चाहते तो दे दाल में पानी वाली बात को हकीकी जामा पहना सकते थे। पर, ऐसा नहीं किया। क्यूं कि वो दिल दा मामला था। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
दिल का मामला बड़ा अजीब है। कहीं सीधा। तो कहीं जलेबी की तरह आंटेबाज। सीधे के आसार कम। आंटेबाजी के ज्यादा। मामला सीधा सपाट होता तो, ये इश्क नहीं आसान कहां से आता। आशिक कैसे पिटता। भागमभगाई कैसे होती। चोरी-चोरी चुपके-चुपके चोंच लड़ाई कैसे होती। कहां से आते दिवाने। कहां जाते मस्ताने। कौन प्यार के नाम पे पिटता। कौन इश्क के नाम पर मरता। कौन लुटता। कौन कपड़े फाड़ता। कौन बाल नोंचता।


हथाईबाजों की समझ में एक बात अब तक नहीं आई। आती भी कैसे। किसी ने सोचा तक नहीं। तो उस का क्या। सोच पर पहरे तो हैं नहीं। उन की सोच। अपनी सोच के आजू-बाजू आ कर थम गई। फिर भी तसल्ली, कि बात शुरु तो हुई। जब शुरु हो गई है, तो एक दिन रंग भी लाएगी। हो सकता है। वो हमारी सोच के साथ कदम से कदम मिला कर चलना शुरु कर दे। हम भी मस्त हो कर गुनगुनाएं ‘आज रपट जाए तो, हमें ना उठाईयो…। इस चला-चलाई में दाल की बात ही भूल गए। ये दाल है ना, दाल। इस की चाल बड़ी निराली है। हम तो इसे अपना सच्चा साथी समझते रहे। रही भी। दुख में उस का साथ। सुख में उस का साथ। गम में वो साथ। खुशी में वो करीब। हंसी में वो शुमार। वो रूलाई के करीब। निगोड़ों ने ऐसी नजर लगाई कि नाम लेवें तो रोंगटे खड़े हो जावे हैं। भाव सुण कर धूजणी छूट जावे।


दाल का अपना हाल। अपना हूलिया। दाल मसूर की। दाल मूंग की। दाल अरहर की। तूर की दाल। मसूर की दाल। चने की दाल। पीले मटर की दाल। थाली के साथ-साथ इस का रिश्ता लिखाई-रटाई से भी। दाल का इतना महिमामंडन विश्व के किसी देश में नहीं हुआ। जितना अपने यहां हुआ। जिस्म से जान जुदा होवें तो आदमजमात से दाल। ख्वाबों में वो। किताबोंं में वो। पति-पत्नी और वो में फच्चर फंसाना हो तो सीधा-सपाट रास्ता- दाल भात में मूसलचंद। छाती पे मूंग दलना रूसी भाषा में मिले, ना जर्मनी में। भारत में हर आदमी की छाती पे मूंग। खास को छोड़ द्यो। ये मूंग उन्हीं ने छाती पर पटके हुए हैं। दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ फ्रांसीसी भाषा में नहीं मिलने वाला। अंगरेजी में होने के पुख्ता सबूत नहीं। बबुआ को अब पता चलेंगे आटा-दाल के भाव। हिन्दी के अलावा ये जुमला किसी और भाषा में हो तो बताओ। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हम दाल के-दाल हमारी। हमारी दाल के आगे किसी की दाल नहीं गलने वाली।


हथाईबाजों के अनुसार दे दाल में पानी के पीछे अपना लॉजिक। अपनी व्यथा। अपने मायने। ये जुमला भारत के बाहर कहीं मिलने वाला नहीं। दाल यहीं की। यहीं का पानी। अनुयायी भी स्थानीय। खाने पर पांच आदमियों को बुलाएं और आ जाएं पच्चीस। यहीं से शुरु हुआ दे दाल में पानी। लेकिन वहां ऐसी स्थिति नहीं थी। बुलाया तो गया था। ये सच है। डंके की चोट बुलाया था। किसी को फोन नही किया। व्यक्तिगत बुलावा नहीं भेजा। सार्वजनिक रूप से न्यौता। चाहते तो इस एपीसोड से मलाई मिल जाती। मगर नक्को। दाल में पानी भी नहीं टेका।
अलबत्ता कई दिनों की बस्ती जरूर हो गई। येड़े हम ही नहीं। चंगु-मंगु भी हैं। बल्कि हम से ज्यादा। जितने जमीन के बाहर। उतने अंदर। हम ने रील में दिखाया था। उसने रियल में बता दिया। थोड़ा दिमाग से काम लिया होता, तो कमाई की कमाई। चासे के चासे। हो ना हो ये हमारी नकल का असर है।


अपने यहां तथाकथित मित्र क्लब हैं। साथी मंडलिया है। सदस्य बनने के अपनेे नियम-शुल्क। गरम मसाला टाईप के लोग इस के मैंबर्स। खाईए। पीजिए। मौज मनाईए। कई लोगों ने इसे धंधा बना रखा है। रोटी-रोजी इसी पे निर्भर। सारी औपचारिकताएं जबानी खर्च। नो पोस्टल ऑर्डर। नो ड्राफ्ट। नो स्टाम्प। सीधा केश। पर वहां ऐसा नहीं हुआ। अलबत्ता वह जरूर हुआ। जो हमारे यहां फिल्मों में होता रहा है। खबर आई चंगु-मंगु वाले चीन से। वहां एक प्रांतीय विश्वविद्यालय की छात्रा ने लड़कों को खुल्ले आम बॉय फ्रैंड बनाने का निमंत्रण दे डाला। कहा- जो उस के छात्रावास के नीचे आकर उस का नाम पुकारेगा। वह उस का प्रस्ताव स्वीकार कर लेगी। फिर क्या था। हम समझे, हमी दिवाने। चंगु-मंगु हम से चार कदम आगे। घंटे भर में तो पूरा छात्रावास परिसर चांगचुंग से भर गया। छोरी अंदर। भीड़ बाहर। कह तो दिया। अब लोचा ये कि वह किस का प्रस्ताव स्वीकार करें। एक अनार- हजार बीमार तो सुना होगा। एक हूर- हजार लंगूर वाली स्थिति हो गई।