मेवाड़ की चित्र परंपरा और पुरालिपियों को समझने के प्रति प्रतिभागियों में उत्साह

प्रताप गौरव केन्द्र
प्रताप गौरव केन्द्र

उदयपुर। प्रताप गौरव केन्द्र राष्ट्रीय तीर्थ के तत्वावधान में चल रहे हल्दीघाटी विजय सार्द्ध चतु: शती समारोह के प्रथम सोपान के अंतर्गत आयोजित मेवाड़ लघु चित्र शैली एवं पुरा लिपि कार्यशाला में शनिवार का दिन ज्ञान और कलात्मकता से परिपूर्ण रहा। 25 जून तक चलने वाली इस कार्यशाला में देशभर से आए प्रतिभागियों में सीखने और नए प्रयोग करने को लेकर अद्भुत उत्साह देखा जा रहा है। प्रताप गौरव केन्द्र के निदेशक अनुराग सक्सेना ने बताया कि शनिवार को हुए कला चर्चा सत्र में प्रसिद्ध चित्रकार पुष्कर लोहार ने नाथद्वारा उपशैली की उत्पत्ति, विकास एवं तकनीकी पक्षों पर विस्तार से संवाद किया। उन्होंने बताया कि यह शैली श्रीकृष्ण की लीलाओं पर आधारित पिछवाई चित्रों के लिए प्रसिद्ध है। 17वीं शताब्दी में जब श्रीनाथजी नाथद्वारा पधारे, तब वल्लभाचार्य चित्रकारों की टोली के साथ आए और इस शैली की नींव पड़ी। उन्होंने बताया कि प्रारंभिक पिछवाई चित्र मोटे कपड़े पर होते थे, जिससे बारीकी नहीं उभर पाती थी, लेकिन समय के साथ तकनीक में सुधार और प्रयोगधर्मिता से यह शैली विकसित होती चली गई। आज यह चित्रकला मंदिरों की दीवारों से निकलकर कला प्रेमियों के घरों की शोभा बन चुकी है।

प्रताप गौरव शोध केन्द्र के शोध निदेशक डॉ. विवेक भाटनगर ने मेवाड़ लघु चित्र शैली के ऐतिहासिक विकास पर प्रकाश डालते हुए कहा कि इसकी शुरुआत तेरहवीं शताब्दी में सावन परिक्रमण सूत्र जैसे चित्रों से होती है। उन्होंने बताया कि चावण्ड शैली के योगदान और महाराणा जगत सिंह के काल में आए स्वर्णिम युग के संदर्भ में कादंबरी के 66 चित्रों को इस परंपरा की अनुपम धरोहर बताया जा सकता है। वरिष्ठ पुराविद व एएसआई के सेवानिवृत्त निदेशक डॉ. धर्मवीर शर्मा ने गोगुंदा स्थित राजमहल की दीवारों पर बने 17 रंगों के घोड़े के चित्र का उल्लेख करते हुए कहा कि यह मुगलों द्वारा मेवाड़ को भेंट था और सूर्य के सात घोड़े का यह चित्र भारतीय संस्कृति में घोड़े के प्रतीकात्मक महत्व का प्रमाण है। उन्होंने बताया कि चेतक के बारे में लोक में ‘नीला घोड़ा’ कहा जाना दरअसल मेवाड़ी में सफेद रंग के लिए प्रयुक्त विशेषण है।

इस अवसर पर मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के सामाजिक एवं मानवीकी महाविद्यालय के अधिष्ठाता प्रो. मदन सिंह राठौड़, दृश्य कला संकाय निदेशक हेमंत द्विवेदी, विभागाध्यक्ष डॉ. धर्मवीर वशिष्ठ, प्रो. अशोक सोनी और डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू ने कला शिविर का भ्रमण कर चित्रकारों का उत्साहवर्धन किया। दूसरी ओर, पुरा लिपि कार्यशाला में डॉ. एस. रवि शंकर ने ब्राह्मी लिपि के शुंग, बौद्ध, अशोककालीन और 17वीं शताब्दी के स्वरूपों की तुलनात्मक जानकारी दी। उन्होंने बताया कि भारत में कैलीग्राफी की परंपरा छठी शताब्दी ईसा पूर्व से रही है और अनेक अभिलेखों में ब्राह्मी को कलात्मक रूप से उकेरा गया है।

कार्यशाला के दूसरे सत्र में डॉ. अभिजीत दांडेकर ने खरोष्ठी लिपि की वर्णमाला, संरचना और पठन तकनीकों पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने अनुपस्थित एवं उपस्थित अक्षरों की विशेषताओं का विश्लेषण प्रस्तुत किया। अंतिम सत्र में डॉ. धर्मवीर शर्मा ने सिंधु लिपि को ‘लिपि’नहीं बल्कि ‘चित्रात्मक सांस्कृतिक प्रस्तुति’बताया। उन्होंने कहा कि इसे लिपि मानकर पढ़ने की बजाय एक वैदिक समाज के प्रतीक चित्रों के रूप में देखा जाए तो इसकी व्याख्या सरल होती है। कार्यशाला के समापन सत्र में पुनः डॉ. रवि शंकर ने ब्राह्मी के स्वर-व्यंजन अभ्यास कराते हुए विद्यार्थियों को सौरमंडल की जानकारी भी प्रदान की। रविवार से कार्यशाला का व्याकरण एवं भाषावैज्ञानिक अध्ययन प्रारंभ होगा।