
किसे पता था कि एक साल बाद ऐसे दिन देखने पड़ जाएंगे। बड़े सयाने तो कहते हैं कि अगले पल की खबर नहीं, तुम बात करते हो एक साल की। एक साल में बारह महिने होते है। एक साल में 365 दिन होते हैं। सोमवार कित्ते-मंगल-बुध से लेकर अदीतवार कितने। साल में कितने घंटे मिनट होते हैं इन सब का हिसाब करने का जिम्मा मुनीमजी पे। समय इतना इंतजार नही करता। समय किसी का इंतजार नही करता। समय को कोई अपने हिसाब से नही चला सकता। कल तक जो अट्टाहास कर रहा था, आज वो हमारी बेबसी पर मीएं..मीएं चंूटिए भर रहा था। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
हम समय को चुनौती नही दे रहे। हम तो क्या, दुनिया की कोई ताकत ऐसा नही कर सकती। समय ने मर्यादा पुरूषोत्तम राम को भी नही बख्शा तो हम-आप कौनसे खेत की गाजर है। इस कहावत में बरसों-अरसों से ‘मूली गढ़ी हुई थी, हम ने उसे थोड़ी देर के लिए उखाड़ दिया। थोड़ी देर के माने हथाई उठते-उठते। इस का कारण ये कि हमारे उखाडऩे भर से सदियों से चली आ रही परंपरा टूटने वाली नही। कहावत में ‘मूली है तो ‘मूली ही रहेगी, थोड़ी देर के लिए गाजर को उस की जगह बिठा दिया तो कौनसी वो उस जगह पे पक्का निर्माण कर लेगी। करने का प्रयास हो गया तो हमें ‘धुड़ाना भी आता है।
मूल कहावत है- ‘फलां कौन से खेत की मूली हैं। फलां की जगह किसी बंदे के नाम का उपयोग किया जाता है। भायाजी कहते है-मैने अच्छों-भलों को धूल चटा दी, मांगीलाल कौन से खेत की मूली है। इसके माने मांगी भाई की बिसात क्या है। हम ने थोड़ा परिवर्तन कर दिया। आखी दुनिया में बदलाव का दौर चल रहा है। देश में परिवर्तन की आंधी चल रही है। हम कल तक अपनों से बात करने के लिए टं्रक कॉल बुक करवा के घंटों इंतजार करते थे, आज ‘नावणी में बैठे-बैठे सात समंदर पार बैठे अपने प्रियजन से बात कर लेते हैं। वीडियो कॉलिंग कर सकते हैं। बदलाव की बयार का मान रखते हुए हमने भी क्षणिक बदलाव कर लिया। ऐसा करना समय की मांग था।
बात घूम-फिर के समय पे आ गई, या ला दी गई। समय चक्र ना तो कभी रूका है, ना कभी रूकेगा। कवि भी कहता है- ‘समय का खेल निराला रे भाई.. समय का खेल..। समय ने भगवान राम को बनवास भेज दिया। इसके आगे तो काली भींत है। इसके बावजूद भी नादान लोग गुमान करते हैं। नादान तो हम ने कहा, वरना भतेरे लोग ऐसे हैं जो अपने आप को तुर्रमखान समझते हैं। वो लोग भूल जाते हैं कि समय ने जिस दिन पसवाड़ा फेर लिया उस दिन तखता पलट तय समझो।
मुद्दे पर आएं तो अट्टाहास आर चूंटिए पर बात आ जाएगी। पिछली बार उस के पूरे परिवार ने ठहाके लगाए थे। ये लंबी-लंबी मंूछे। ये शानदार पगरखिएं। ये शानदार पौशाक। तीर चलने के साथ आग और फिर पटाखों की गूंज। हजारों लोग उनके दहन के साक्षी। उसके बाद शानदार अतिशबाजी। हर साल हजारों-लाखों का खामखा का कूंडा। ऐसे उपक्रम करने से क्या फायदा। तुम तुम्हारे भीतर झांक के तो देखो। तुम्हारे अंदर लक्ख-लक्ख बुराइयां अटी पड़ी है और तुम बुराई के प्रतीकों को फूंक रहे हो। इस बार तो वह भी नही। तभी तो मीएं-मीएं चूंटिए भरीज रहे हैं। तंज कसीज रहे हैं। मानो वो कह रहा हो- ‘डूंगर बळती मति देखो..।
जहां तक हमारा अंदाज है, समझने वाले समझ गए होंगे कि इशारा किस की तरफ है। नही समझे तो हम समझा देते हैं। मीएं-मीएं चूंटिए रावण भर रहा है। मींए-मीएं माने महिन-महिन। हमें भगवानजी माट्साब के साथ-साथ उनके चूंटिए भी याद हैं। ऐसे चूंटिए चमेटते कि ‘दाफड़ हो जाते। उन्हीं की बदौलत हमारी पीढी कुछ करे जैसी हुई। सवाल ये कि रावण चूंटिए क्यूं भरेगा, तो जवाब ये कि इस बार विजय दशमी मेला नही भरा जाएगा। कोरोना के चलते शासन-प्रशासन को ऐसा निर्णय लेना पड़ा। ना मेला भरेगा-ना रावण और उसके परिजनों के पुतले फूंके जाएंगे। फूं के भी जाएंगे तो प्रतीकात्मक रूप से। कहीं कोरोना रूपी रावण के पुतलों का दहन होगा तो कहीं किसी और प्रतीक का। हमेशा की तरह ना तो पुतले अट्टाहस करेंगे न आतिशखोरी होगी। हम ने हमेशा यही कहा-आज फिर दोहरा रहे है कि मनभीतर दबी बुराइयों को जलाओ। अंदर के अहंकार, दंभ, द्वेष, घमंड और अवगुणों का दहन कुरो। ऐसा होने पर ही बुराई पर अच्छाई की जीत होगी अन्यथा रावण चूंटिए भरता रहेगा।