बैंकिंग उद्योग के दरवाजे बड़े व्यापारी घरानों के लिए खोल रहा है RBI

बैंकिंग रेगुलेटर भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) द्वारा गठित एक वर्किंग ग्रुप ने सुझाव दिया है कि निजी क्षेत्र के बैंकों के ओनरशिप के साथ क्या करना चाहिए। इसमें कहा गया है कि बड़े औद्योगिक घरानों को नियंत्रण हिस्सेदारी के लिए अनुमति दी जा सकती है, लेकिन “कनेक्टेड लेंडिंग” की समस्या से निपटने के लिए रेगुलेशन और सुपरविजन को मजबूत करने के बाद ही ऐसा होना चाहिए। यानी जमाकर्ताओं के पैसे को उनके अन्य बिजनेस में डायवर्ट करने का यह मुद्दा है।

शर्तों में पिछले दरवाजे से एंट्री का रास्ता

सिफारिश में जो भी शर्तें रखी गई हैं उनसे ऐसा नहीं लगता है कि रेगुलेटर जल्द ही घरानों को बैंकिंग से दूर रखने की अपनी नीति को उलट देगा। लेकिन रिपोर्ट में बैकडोर एंट्री का रास्ता खुल सकता है। बड़े समूह नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों (NBFC) का अधिग्रहण कर सकते हैं, जिन्हें बैंकों में बदलने की अनुमति दी जा सकती है। कोरोना के बाद पैसे के लिए फाइनेंशियल सिस्टम का दारोमदार सरकारी अधिकार से छिन कर बड़े बड़े प्राइवेट अमीरों के हाथों में जा सकता है।

1997-98 का एशियाई वित्तीय संकट

1997-98 के एशियाई वित्तीय संकट में एक चेतावनी छिपी है। इंडोनेशिया में एक कॉर्पोरेट समूह के भीतर वित्तीय और गैर-वित्तीय गतिविधियों की अनियंत्रित लेन देन ने बैंकों की लागत को 1998 के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 40% से ऊपर पहुंचा दिया। ऐसा ही भारत के टेलीकॉम से परिवहन तक के व्यापार में एकाधिकार अर्थात मोनोपोली की झलक मिलती दिख रही है।

पूंजीवाद की पैठ

बडे बड़े घरानों से उपजे पूंजीवाद ने भारत में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी है, जो डेढ़ दशक बाद फ्रेंकस्टीन जैसे दानव के रूप में उभर रहा है। राजनेताओं ने 1990 के दशक के शुरू में निजी क्षेत्र में घुसपैठ करना शुरू कर दिया था। और तभी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) और तेज आर्थिक विकास के नाम पर लोन की बंदरबांट शुरू हो गई।