राजस्थानी भाषा की मान्यता: मोदी के हर दौरे पर उठती उम्मीदें

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
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देश के शासनतंत्र में निर्णायक जगहों पर हमारे अपने विराजमान हैं —उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, कई केंद्रीय मंत्री और अनेक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी। इसके बावजूद राजस्थानी भाषा अब भी अपने अधिकारों के लिए भटक रही है।

जब-जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का राजस्थान दौरा होता है, तब-तब राजस्थानी भाषा की मान्यता साकार होने की आशा बलवती होती है। आज राजस्थान के वासी देश के शासनतंत्र में निर्णायक स्थानों पर विराजमान हैं—उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, कई केंद्रीय मंत्री और अनेक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी। बावजूद इसके, राजस्थानी भाषा अब भी अपने अधिकारों के लिए भटक रही है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिनकी मातृभाषा ने उन्हें राष्ट्र के सर्वोच्च पदों तक पहुँचाया, उसी भाषा को अब तक संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान नहीं मिला।

हर आम चुनाव से पहले जैसे मौसम में आद्रता बढ़ती है, वैसे ही राजस्थानी भाषा की मान्यता की बात भी हवा में गूंजने लगती है। लेकिन यह चर्चा भीषण गर्मी के बादलों की तरह होती है—गर्जन तो होता है, पर बरसात नहीं।
राजस्थान विधानसभा ने 2003 में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार से आग्रह किया था कि राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता दी जाए। यह वह समय था जब राज्यों की भाषाई अस्मिता को लेकर जागरूकता बढ़ रही थी। पर बीते दो दशकों में ना तो केंद्र सरकार ने इस प्रस्ताव पर कोई ठोस निर्णय लिया और ना ही संसद में कोई सार्थक बहस हुई।

इस बीच 2004, 2009, 2014 और 2019—चार आम चुनाव गुजर चुके हैं और हर बार यह मुद्दा थोड़ी देर के लिए जागा और फिर सो गया। भाषा आंदोलन में लगे अनेक साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार लंबे समय से मांग कर रहे हैं कि जिस भाषा को करोड़ों लोग बोलते हैं, और जिसमें हजारों वर्षों की सांस्कृतिक धरोहर सुरक्षित है, उसे संविधान में उचित स्थान मिले।

राजस्थानी भाषा के साथ सबसे बड़ा छल तब हुआ जब केंद्र सरकार ने आठवीं अनुसूची में अन्य भाषाओं जैसे बोडो, डोगरी, मैथिली और संथाली को शामिल कर लिया, जिनके बोलने वालों की संख्या और सांस्कृतिक परंपरा राजस्थानी से कम है। 2011 की जनगणना के अनुसार राजस्थानी बोलने वालों की संख्या लगभग 2 करोड़ से अधिक थी। लेकिन चूंकि राजस्थानी को ‘बोली’ कह कर अलग-अलग नामों में बाँट दिया गया है, इसने आंकड़ों में भी नुकसान पहुंचाया।

यह भी उल्लेखनीय है कि जब सिंधी भाषा को 1967 में संविधान में स्थान मिला, तब लालकृष्ण आडवाणी जी ने उसके पक्ष में सशक्त पैरवी की थी। वहीं दूसरी ओर, आडवाणी स्वयं पाकिस्तान से विस्थापित होकर जोधपुर में शरण लिए हुए थे। यह राजस्थान की धरती ही थी जिसने उन्हें राजनीतिक संस्कार दिए और वे यहीं से आगे बढ़कर देश के उपप्रधानमंत्री पद तक पहुँचे। उस समय उनसे यह भी अपेक्षा की गई थी कि वे राजस्थानी भाषा के लिए भी समर्थन दें, पर दुर्भाग्यवश उन्होंने इस दिशा में कोई गंभीर पहल नहीं की।

2023 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की गई थी जिसमें राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की अपील की गई थी। परंतु अदालत ने इसे कार्यपालिका का विषय बताकर खारिज कर दिया। यही जवाब पिछले 20 वर्षों से सरकारें भी देती रही हैं—”विचाराधीन है”, “समिति गठित की गई है”, “समर्थन दिया जाएगा”—लेकिन निर्णय आज तक नहीं आया।

राजस्थानी भाषा में आज भी सैकड़ों लोकगीत, दोहे, कहावतें, रंगमंच, और लोककथाएं जीवित हैं। अनेक साहित्यकारों ने इस भाषा को जीवंत बनाए रखा है और वैश्विक मंचों तक पहुँचाया है। फिर भी भाषा को उपेक्षित रखना, सांस्कृतिक अस्मिता के साथ अन्याय है।

राज्य के वर्तमान राजनेता भी इस विषय को चुनावी मंचों तक ही सीमित रखते हैं। जब देश के प्रधान सेवक मंच से लोकभाषा में बोलते हैं, तब जनता को लगता है कि शायद अब कुछ ठोस होगा। लेकिन हर बार की तरह यह आशा भी चुनावी धूल में उड़ जाती है।

राजस्थानी भाषा की मान्यता अब सिर्फ भाषाई अधिकार नहीं, सांस्कृतिक सम्मान और ऐतिहासिक न्याय का प्रश्न है। अब वक्त आ गया है कि यह मुद्दा केवल जुलूसों और याचिकाओं से आगे बढ़े और संसद के पटल पर ठोस निर्णय के रूप में सामने आए। वरना हर चुनाव से पहले यह मांग फिर किसी मौसमी मेंढक की तरह उभरेगी और सत्ता की सूखी ज़मीन पर दम तोड़ती रहेगी।

बलवंत राज मेहता, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार
बलवंत राज मेहता, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार