वफादारी का ईनाम-बाड़ाबंदी

जैसी संभावना जताई गई थी, वैसा ही हो रहा है, थोड़ा बहुत ऊंचा-नीचा और गहरा-सादा चलता आया है। चल रहा है। चलता रहेगा। कोई यह समझे कि हमेशा वैसा ही हो, जैसा वो सोचें तो ऐसा संभव नही है। कोई यह समझे कि हमेशा वही हो, जैसा वो करे। वैसा भी संभव नही है। संभव-असंभव और मुमकिन-नामुमकिन के बीच एक नया सवाल खड़ा हो गया कि क्या वफादारी का ईनाम बाड़ाबंदी है? हम तो कुछ और सोच-समझ बैठे थे, अब एक बार और इस बात की ताईद हो गई कि ज्यादा वफादारी दिखाई तो-बंधक बना लिए जाओगे। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

वफादारी के ईनाम की नई परिभाषा भारतीय राजनीति ने घड़ी है। घड़ी के माने घड़ाई। एक घड़ी वो जो समय बताती है। हाथ घड़ी-दीवार घड़ी-टेबिल घड़ी-घंटाघर वाली घड़ी। इसमें स्त्री लिंग और पुर्लिंग का भेद। एक तरफ कहा जा रहा है कि नारी और पुरूष एक गाड़ी के दो पहिए हैं। एक ओर कहा जा रहा है कि महिला और पुरूष को संविधान ने बराबरी का दरजा दिया हुआ है और दूसरी तरफ जेंट्स घडी और लेडिज घड़ी का राग आलापा जा रहा है। ऐसा आज से नहीं, अरसों से हो रहा है। बरसों से चल रहा है।

चाहे हाथ घड़ी हो या टेबिल घड़ी। घंटाघर की घड़ी हो या दीवार घड़ी। बताती तो समय ही है। समय भी बजे वाला। एक बजे-दो बजे या तीन-चार बजे वाला। असली समय तो समय बताता है। समय ने अपने आप को फन्ने खान समझने वालों को जमीन दिखा दी। किस ने सोचा था कि देश-दुनिया को ऐसा समय देखना पड़ेगा कि दुनिया के चौधरी देश जमीन पे आ जाएंगे। समय ने भगवान राम को वनवास भुगता दिया, हम-आप-ये-वो-इन की -उनकी क्या बिसात है।

एक होती लम्हें वाली घड़ी और एक होती है-घड़ाई वाली घड़ी। घड़ी बोले तो लम्हा और घड़ी-घड़ी बोले तो बार-बार। आम भाषा में इसका जम के उपयोग किया जाता है। लोग तो लोग, खुद हम-आप दिन में दस-बीस-तीस दफे इसका प्रयोग आम तौर पे कर लेते हैं। हम कहते भी हैं-‘इस घड़ी की क्या, अगली घड़ी में पता नहीं क्या हो जाए। इसके तार पल और लम्हें से जुडे। अपन कहते भी है-‘ऐसा घड़ी-घड़ी थोड़े ही होता है। इसके माने ऐसा बार-बार नहीं होता। दूसरी वाली घड़ी का नाता घड़ाई से जुड़ा हुआ।

इसमें भी पेच। भाईसेण कहते हैं-‘ये सारी बातें घड़ी-घड़ाई है। इसके माने क्या। इसके माने ये कि अगली पार्टी जो कह रही है या जो आरोप लगा रही है-वह पूर्व नियोजित है। पहले उस की स्क्रीप्ट लिखी गई। फिर रिहर्सल किया गया उसके बाद मुक्ताकाशीय मंच अथवा सार्वजनिक तौर पे मंचन। इसको घड़ी-घड़ाई बातों से जोड़ा जाता है। दूसरी घड़ाई पत्थरों पर। आप राजस्थान के महल-माळिए-मंदिर और हवेलियां देख लीजिए। एक-एक पत्थर बोलता नजर आएगा। उन पर फूल-पक्तियों की घड़ाई। उन पर प्रतिमाओं की घड़ाई। उन पर धार्मिक उद्बोधन। उन पर पारंपरिक भाषाएं उकेरी हुई। एक जमाने में कारीगर अपने हाथों से पत्थरों से घड़ाई करते थे आज उनका स्थान मशीनों ने ले लिया।


यह तो हुई घड़ी और घड़ाई। घड़ी तो घड़ी-नही घड़ी तो नही घड़ी। घड़ाई तो घड़ाई-नहीं घड़ाई तो नहीं घड़ाई। पर सियासत ने जो घड़ाई की वह सबसे अलग। सबसे जुदा। सबसे अलहदा। यह घड़ाई बहुत पहले से शुरू हो गई थी, खल्लास सोरेसास होणे वाली नहीं। जानकार लोग थमने की बजाय ठाठे मारने की ओर इशारा कर रहे हैं। अजब घड़ाई-अजीब घड़ाई। वफादारी का ईनाम मिलता है। वफादारी की शाबासी मिलती है। वफादारी करने से पद मिलता हे। वफादारी का पुरस्कार मिलता है मगर सूगली सियासत ने उसकी परिभाषा ही बदल दी। वफादारी के माने बाडा। वफादारी के माने बंधुआ। वफादारी के माने बंधक। वफादारी के माने बाड़ाबंदी। इसका एक और प्रमाण इन दिनों राज्य में एक बार फिर दिखाई दे रहा है।
राज्य की राजनीति में इन दिनों जो कुछ रहा है, उसे देश-दुनिया देख रही है। कांगरेस में खेमाबंदी। विधायकों की

गुटबंदी। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का अपना खेमा। सचिन पायलट का अपना। एक ओर बहुमत का दावा-दूसरी ओर अल्पमत का। मामला हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक। गहलोत गुट का राजभवन पर नाटक और नारेबाजी। राज्यपाल पर विधानसभा सत्र बुलाने का दबाव। जनता द्वारा राजभवन घेरने की धमकी। कल तक जो एक जाजम पर बैठ कर एक थाली में जीमते थे-आज वो नकारा-निकम्मे और गद्दार हो गए।

बिना बुलाए राजभवन पहुंच कर अघोषित परेड करवाना आदि-इत्यादि। कांगरेस की अंदरूनी लड़ाई को सरकार और राजभवन का दंगल बनाना भी उसी घड़ाई का एक अंग। कुल जमा सूगली सियासत उफान पर। इस बीच फिर वही अंगुली। फिर वही इशारा कि वफादारी का मतलब बाड़ाबंदी। गहलोत के वफादारों का बाड़ा। पायलट के वफादारों का बाड़ा। ऐसा नही कि भाजपा और अन्यदल भी इससे अछूते रह गए हों। वहां भी बाड़ाबंदी हो चुकी है। इसका मतलब साफ कि वफादारी का ईनाम-बाड़ाबंदी। वफादरी भी दिखाओ और बाड़े में भी रहो। इसे कहते हैं सूगली सियासत।