उदासी भरे दिन ढल जाणे हैं

कोई माने या ना माने,। हम तो मानने लग गए हैं कि जितने दूरदर्शी गीतकार हैं, उतना शायद कोई नहीं। हम कविजनों को भी दूरंदेशियों की श्रेणी में खड़ा पा रहे हैं। पता नहीं उन्होंने कब कहा और किन स्थितियों-परिस्थितियों में कहा। उन्होंने किस प्रसंग पर लिखा और क्या देख कर लिखा। उन्होंने जो लिखा, आज वो खरा उतरता दिखाई दे रहा है। उनकी लिखाई में आगाह के साथ संदेश भी। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


बात समय से शुरू करते हैं। बात सिर्फ हमारी बात की नहीं या हमारी बात शुरू करने की नहीं। कहानियों का दौर अब वापस इसलिए शुरू हुआ कि पिछले दिनों आखा देश घरों में बंद रहा। चंद जाहिलों को छोड़ द्यो, वरना पूरा देश पुरातन परंपरा की ओर चला गया। घरों में परंपरागत खेलों का दौर शुरू हो गए। बच्चों का बचपन थोड़े दिनों के लिए ही सही, वापस आ गया वरना शहरी-महाशहरी क्षेत्र के अधिकांश बच्चे बैग-स्कूल-होम टास्क-ट्यूशन और मोबाइल फोन के बोझ में दब कर रह गए। ना परंपरागत खेल ना परंपरागत खेलों के खिलाड़ी। खेलेंगे तो भी सिर्फ और सिर्फ किरकिट। बाकी के खेल लुप्त प्राय। हमारे समय के खेल तो बच्चे कब के भूलभुला गए।


उन दिनों की बात ही कुछ और थी। ना सुबह जल्दी उठनें की चिंता ना स्कूल का होमटास्क करने की फिकर। ना टैक्सी अंकल की आवाज ना सर-मैडम की डांट। स्कूल से वापस आते ही बस्ता घर में पटक कर खेलने चले जाते। वापसी तब होती जब या तो पेट में चूहे कूदते या फिर घर कोई बड़ा सदस्य कान पकड़ के ले जाता।


उन दिनों के खेल आज भी याद है। इनडोर खेल अलग-अलग आउटडोर अलग। झुरनी से लेकर काणी गुप्पी। कंचों से लेकर गिल्ली-डंडा। संतोळिया। मालदड़ी। टिलमटिलों। लुका छुपी। लंगड़ी टांग। आईसपाईस। किरकिट का तो कोई नामलेवा ही नहीं था। फुटबॉल खेलने का मन करता तो कपड़ों की गठरी बना के सूतली से बांध देते। लो बन गई फुटबॉल। इनडोर खेलों के रूप में चरभर। चौपड़। लूण-मिरच-हलदी-धाणा..नागौरिया रे बास में कानजी काणा..। गड्डे लडकियों का पसंदीदा गेम। शाम को पूरा परिवार छत पर। गरमी के दिनों में पहले छतों पर पानी का छिड़काव उस के बाद बिस्तर बिछाई।

कोई किसी का बिस्तर गरम कर देता तो झगड़े। नानी-दादी की कहानियां। कभी परी की कहानी तो कभी वीरों-शूरवीरों की। कब बचपन गुजरा-कब किशोर अवस्था और कब जवानी। पता ही नहीं चला। सुख आया तो सब ने मिलकर मजे किए। दुख की घड़ी आई तो सबने मिल कर मुकाबला किया। संयुक्त परिवार बिखरे तो सब-सब तन्हा। समय ने पुराने बखत की याद दिला दी। वो दिन वापस लौट आए। फरक इतना कि उस समय परिवार साझे थे-आज मैं अर म्हारो गीगलो। वो भी घर में कैद रहे। इनडोर खेल भले ही पुरातन ना हो, पर सहारा उन्हीं का। टूटी-फूटी कहानियां। अन-जन राजा की जगह मोबाइल। जो करमचारी हमेशा छुट्टियों की बाट जोहते थे, वो घर में पड़े-पड़े उकता गए। ऐसे में कवि के वो बोल कानों में गंूजते रहे। समय का खेल निराला रे भाई..समय का खेल निराला..।


अपने यहां भतेरे ऐसे लोग हैं जो अपने-आप को व्यस्त और व्यस्तम बताने से बाज नही आते थे। कोई कहता था दाम लेने की फुरसत नहीं है। सुबह से लेकर रात तक काम ही काम। बच्चे पापा की शकल देखने को तरस जाते। घर-परिवार का काम करने के लिए कहते तो फुरसत नहीं है का रट्टा तैयार। कई लोग तो इनसे बीस कदम आगे। अपने यहां दस कदम आगे कहने की परंपरा रही है। हम ने उसे बदल दिया। जानते हैं कि एक हथाई लिखने भर से अरसों-बरसों से चली आ रही परंपरा बदलने वाली नहीं। फिर भी तसल्ली है कि हमने दस से बीस तो किया। ठस हो के तो नहीं रहे। होना तो बीस कदम की जगह बीस हजार कदम आगे चाहिए मगर हम इतना भी आगे नहीं निकलना चाहते कि सब कुछ पीछे छूट गए। बीस कदम आगे वाले कहते थे-‘भाई मरने की भी फुरसत नही हैं। वही लोग उन दिनों जिंदगी के लिए घर में फुरसत के साथ बैठे। भले ही मन मारकर बैठे। भले ही उन्हें मन मार कर घर में पड़ा रहना पड़ा। तब मरने की फुरसत नहीं का राग और तब जीवन के लिए घर में बंद होकर फुरसत ही फुरसत..। इसे कहते हैं समय की मार।


हथाईबाजों ने उन दिनों खबरिया चैनल्स पर किशोर दा का गाया एक गीत सुना। कई बार सुना रहे हैं। आपने भी सुना होगा। नही सुना हो तो सुनना। गाने के हर बोल में एक सकारात्मक संदेश। हर बोल में सच्चाई। हर बोल सच्चाई से सना हुआ। गीत हमारे जमाने का है। कम से कम 60 साल पुराना। अब सोचो कि उस समय लिखा गीत आज सच्चा उतर रहा है तो गीतकार कितना दूरदर्शी रहा होगा। हमें वो गीत कंठस्थ है। पूरा तो नही दो लाइने पेश हैं।

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‘कहां तक ये मन को, अंधेरे छलेंगे
उदासी भरे दिन, कभी तो ढलेंगे..।
इसमें एक सच्चाई। एक संदेश। देश-दुनिया कोरोना संक्रमण से उपजी महामारी का सामना कर रही है। अंधेरे मन को छल रहे हैं मगर घबराने की जरूरत नही। संयम रखें-धैर्य रखें। उदासी भरे दिन ढल जाणे हैं..।