उदासी भरे दिन.. कभी तो ढलेंगे..

आज फिर वो गीत याद आ गया। गीत की वो पंक्तियां याद आ गई। हमें लगता है कि गीतकार ने इन्ही दिनों की आहट महसूस करते हुए गीत को शब्दों में पिरोया होगा और गायक ने उस में डूबकर गाया होगा। वो गीतकार कितने दूरंदेशी रहे होंगे। वो गायक कितने दूरदृष्टा रहे होंगे। एक ने पिरोया-दूसरे ने गाया।

हम ने भी अक्सर गुनगुनाया। जब-जब गाया। जब-जब सुर लहरियां फूटी। जब-जब हलक से सुर फूटे। एक सकारात्मक लहर उठी। एक उम्मीद जगी। एक आस जगी। आशा की किरण फिर फूटी। होठों पे फिर आ गया-‘कहां तक ये मन को अंधेरे छलेंगे.. उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे..। शहर की लगभग हथाईयों पर आज यही सुर लहरियां बिखर रही थी।


हथाई पे अक्सर एक नए मुद्दे पर चर्चा होती है। कई दफे अधूरी रह जाने पर दूसरी रात को गतांग से आगे चर्चा शुरू होती है और जब तक किसी नतीजे पे ना पहुंच जाए, थमने का नाम नही लेती। आज वहां सुर लहरियां फूटी तो कई लोगों को हैरत हो रही होगी। होली के दिनों में वहां फाग लहरियां बिखरती हैं। चंग की थाप गूंजती है।

अश्लील गालियों का गायन भी जम कर होता है-पर इन दिनों ना तो फागण का मौसम ना अन्त्याक्षरी प्रतियोगिता, इसके बावजूद सुर फूटे हैं तो यकीनन उसके पीछे कोई ठोस वजह रही होगी, वरना आए दिन ऐसा नहीं होता कि हथाईपंथी चासे-चर्चा छोड़कर गीत-गानों में बह जाएं। इससे पहले कि कोई और कुछ कहता। सुर फिर फूटे-‘कभी सुख-कभी दुख..यही जिंदगी है.. ये पतझड़ का मौसम, घड़ी दो घड़ी है.. नए फूल कल फिर डगर में खिलेंगे… उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे।

गीत का पहला पेरा सुनने-समझने-गुनगुनाने के बाद समझने वाले समझ गए होंगे कि राग.. धुन.. लहर.. किस ओर बह रहे हैं। जो नही समझे उन्हें समझाने के लिए हम हैं ना..। कई लोग जान बूझ के अनजान बने रहते हैं। हमारी भाषा में उन्हें ‘जाणगेला कहा जाता है। हमारा प्रयास रहेगा कि उनको भी मुख्य धारा से जोड़ा जाए। इस के बावजूद भी कोई समझने का जतन नही करे तो भी हमारे लबों से यही फूटेगा..’उदासी भरे दिन.. कभी तो ढलेंगे..।

हथाईपंथी इशारे की बात कर रहे हैं, कई लोग तो समझ भी गए कि कौन क्या कहना चाहता है। जो बीत गया सो बीत गया। जो गुजर गया सो गुजर गया। आने वाला कल सुनहरा होगा। सतरंगी होगा। इंद्रधनुषी होगा। हांलांकि आने वाले साल पर अंगरेजियत का ठप्पा ठुका है, मगर कल तो हमारा अपना है।


हमने आम सालों-महिनों-हफ्तों और दिनों में धूप-छांव की स्थिति देखी मगर वर्ष 2020 में छांव कम-तीखी और तडफ़ाती धूप ज्यादा नजर आई। साल की पहली तिमाही तक तो काफी कुछ ठीक चला उसके बाद कोरोना ने जो कहर बरपाना शुरू किया वो आज भी जारी है। राहत की बात ये कि कोरोना का असर कुछ कम हो रहा है मगर स्टे्रन ने आहत करना शुरू कर दिया। देश-दुनिया ने कोरोना का कहर भुगता।

हम अपने ही घरों में ढाई-तीन महिने कैद रहे। सियासत में तो ऐसा देखा गया कि फलां नेते को घर में नजरबंद कर दिया गया, मगर कोरोना ने आम लोगों को घरबंद कर डाला। वो समय हमने कैसे गुजारा, हमारा जी जाणता है। इस दौरान सब कुछ ठप रहा। बाजार बंद। शहरों में स्यापा। उद्योग-धंधे ठप। कल-कारखाने बंद। रेलें बंद। आवागमन के साधन बंद। शैक्षणिक संस्थान बंद।

गरीबों की हालत खस्ता हो गई। चूल्हे बुझ गए। हांलांकि शासन-प्रशासन ने राहत पहुंचाने के प्रयास किए मगर वो आधे-अधूरे साबित हुए। भला हो सामाजिक और सेवाभावी संगठनों का। भला हो भले लोगों का जिन्होंने आगे आकर सरकार को सहयोग किया और स्थिति संभाल ली। माना कि लॉकडाउन की वजह से आखा देश परेशान रहा, मगर यह भी सोचिए कि अगर हम अपने घरों में कैद ना हुए होते तो हाल कैसे होते। कोरोना ने विश्व के शक्तिशाली राष्ट्रों को हिला के रख दिया। भुगता हमने भी। हमने भी कई हस्तियों को खोया। अपनों को खोया। शुकर है कि संभल गए..बचा खुचा भी संभल जाएगा।


वरिष्ठ हथाईपंथियों ने ऐसा बुरा साल कभी नही देखा। ऐसा बुरा दौर पहले कभी नही देखा। इसके बावजूद उम्मीद का दामन नही छोड़ा। सुख ना रहा तो दुख भी नही रहेगा। आज धूप है तो कल वापस शीतल छांव देखने को मिलेगी। यह साल अंगरेजी है, भारतीय नववर्ष का आगमन चैत्र शुक्ला प्रतिप्रदा 13 अप्रैल को होणा है-मगर हमें विश्व के साथ भी चलना है लोगबाग अपने अपने हिसाब से गुजरे साल को विदाई और नए साल का स्वागत करते रहे हैं। इस बार नो ताम-नो झाम। नो लटके-नो झटके। नो होटलगिरी-नो रेस्टोरेंट बाजी। घर में रहें। गरमागरम पकोड़ों का आनंद उठाएं। सब मिल के वही गुनगुनाएं, जो हमने गुनगुनाया-‘कहां तक ये मन को अंधेरे छलेंगे..उदासी भरे दिन, कभी तो ढलेंगे..। इसी आस-उम्मीद और कामना के साथ आप सब को नए अंगरेजी साल 2021 की शुभकामनाएं..। नया साल रा राम-राम..।