शुक्लता की ओर हो जीवन की अभिमुखता : आचार्यश्री महाश्रमण

आचार्य महाश्रमण
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शरद पूर्णिमा के दिन आचार्यश्री ने शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष को किया व्याख्यायित

विशेष प्रतिनिधि, छापर (चूरू)। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने रविवार को आचार्य कालू महाश्रमण समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि आज आश्विन पूर्णिमा है। चतुर्मासकाल का तीन महीना आज पूर्ण हो गया। आज के दिन को लोग शरद पूर्णिमा के नाम से भी जानते हैं और इसका विशेष महत्त्व भी होता है।

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चन्द्रमा की चांदनी का अपना महत्त्व भी है और इसका उपयोग भी किया जा सकता है। पहले के समय में शरत्चन्द्र की चांदनी में मानों नेत्रों का परीक्षण-सा किया जाता था। साधु-संतों द्वारा सूक्ष्माक्षरों को पढऩे का प्रयास किया जाता था। आज भी इसका उपयोग किया जाता होगा। सृष्टि की मानों यह व्यवस्था है कि कभी कृष्णपक्ष और कभी शुक्लपक्ष का क्रम चलता रहता है। इनके नाम के पीछे यह बात हो सकती है कि चांदनी तो दोनों ही पक्षों में होती है, किन्तु शुक्लपक्ष में क्रमश: प्रकाश की अभिमुखता होते-होते पूर्णिमा आ जाती है, जिसमें पूर्ण प्रकाश होता है तथा कृष्णपक्ष में अभिमुखता अंधकार की होती है, जो क्रमश: अंधकार की ओर बढ़ते-बढ़ते अमावस्या आ जाती है। इस प्रकार जिस पक्ष में प्रकाश की अभिमुखता शुक्लता की ओर वह शुक्लपक्ष होता है, जिसे आदमी अपने जीवन में भी महसूस कर सकता है। जीवन में कभी विशेष प्रसन्नता, अनुकूलता, उत्साह, नवीनता की प्राप्ति, उपलब्धि आदि होती है तो कभी निराशा, हताशा, उदासी, दु:ख आदि की स्थिति भी बन सकती है।

आचार्य श्री ने कहा कि आदमी के जीवन की जो वृत्तियां होती हैं, उसमें हिंसा से भय और फिर भय से हिंसा भी होती है। असत्य भाषण, अनैतिकता, चोरी आदि भी होती है। यह सारी वृत्तियां आदमी को अंधेरे अर्थात् कृष्णता की ओर ले जानी वाली होती हैं। इसलिए आदमी को अपने जीवन में ईमानदारी, अहिंसा रूपी शुक्लता की ओर अभिमुखता बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को अपने जीवन में शुक्ल लेश्या की दिशा में आगे बढऩे का प्रयास करना चाहिए। पूज्य आचार्य महाप्रज्ञजी प्रेक्षाध्यान के चौथे चरण में ज्योतिकेन्द्र पर पूर्णिमा के चन्द्रमा के प्रकाश की शांति उज्जवलता का प्रयोग कराते थे। चन्दन शीतल होता है, किन्तु चन्दन से शीतल चन्द्रमा होता है। इस प्रकार आदमी को शरत् चन्द्र सम श्वेत बनने की दिशा में विकास करने का प्रयास करना चाहिए।

आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्या साध्वी सम्बुद्धयशाजी व साध्वीप्रमुखा साध्वी विश्रुतविभाजी ने भी श्रद्धालुओं को उद्बोधित किया। मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने कालूयशोविलास का संगान और आख्यान करते हुए लाडनूं चतुर्मास के दौरान के प्रसंगों तथा उसके बाद विहार आदि के प्रसंगों का भी वर्णन किया। कार्यक्रम में श्रीमती किरणदेवी तातेड़ ने आचार्यश्री से 45 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। अमृतवाणी द्वारा आयोजित स्वर संगम प्रतियोगिता के फाइनल राउण्ड का आयोजन आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में दोपहर दो बजे से आयोजित किया गया। इसमें देश भर से चुनकर आए 14 प्रतिभागियों ने अपनी-अपनी प्रस्तुतियों के माध्यम से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया।

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