अध्यक्ष वही बनाएंगे

भले ही किसी ने सौगंध ना उठाई हो। उठाई भी होगी तो किस को पता। दिखावे के तौर पे भले ही ना उठाई हो, अंदरखाने उठाने से तो बाज आने का सवाल ही नहीं। भले ही किसी ने नारे ना लगाए हों। पोस्टर लगा के अपने आप को उनका असली मिट्ठु और पिट्ठु होने के सबूत जरूर दिए। भले ही किसी ने खत-चिट्ठियां लिख कर नए चेहरे की खोज की खाज खीणी हो, मगर ले दे के वही राग-‘फटा पोस्टर निकले बाबा..। ले दे कर वही राग। ले दे के वही दोहा। कुल जमा वही नारा-‘अध्यक्ष वही बनाएंगे..। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

जहां तक हमारा अंदाज है, ऊपर का एक पेरा पढकर समझवानों की समझ में आ गया होगा कि हथाई की धारा किस ओर मुडऩे वाली है। लोग भले ही पब्लिक को येड़ा समझते हों, मगर वो सब कुछ जानती है। भारत की जनता भोली है। भरत की जनता बहकावे में आ जाती है। हम लोग हर हर स्याणे हैं। हम लोग किसी की बात पर जल्दी यकीन कर लेते हैं। भारत की जनता को लल्ला-पुच्चू से कोई मतलब नहीं। कोई उसे बेवकूफ समझने की कोशिश मती करना। हम सिर पे बिठाना जानने हैं तो औंधे मुंह गिराना भी आता है। हम ऐसे-ऐसे धोबी पटके मार चुके हैं कि अगली पार्टी आज तक बिलबिला रही है।

समझवानों को इशारा ही काफी है। भतेरों को तो इशारे की भी जरूर नहीं। वो ख..ख..खा.. सुनते ही समझ जाते हैं कि आगे ‘खाडो है.. आगे खड्डा है। शुरूआती पेरेग्राफ उन की समझ से बाहर रहा हो, ऐसा नही है। इस के बावजूद भी कोई कहे कि हमें कुछ नहीं पता, तो ऐसे लोगों को पता बताना हमें बखूबी आता है। पता और पते की अपनी रामकहानी है। कई अक्षर ऐसे हैं जो बिंदी-नुक्ते के कारण मायने बदल देते है। मिसाल के तौर पे बदरी और शंकर वाले किस्से को ही ले लिजिए। बदरी ने अपने दोस्त शंकर से कहा-‘तेरे श के ऊपर लगी बिंदी हटा के आगे आधा ‘क् लगा देते तो ‘शक्कर खाने का मजा आ जाता। शंकर भी किसी सियासी खिलाड़ी से कम नहीं था। बोला-‘मेरे ‘श के ऊपर की बिन्दी हटा के तेरे ‘ब पे लगा दे तो ‘बंदरी का नाच देखने का मजा आ जाएगा..।

‘पता और पता भी यही टोटका लागू होता है। पता बोले तो एड्रेस। घर का पता। ऑफिस का पता। संस्थान का पता। क्वाटर-हैड क्वाटर का पता। एक पता के तार ‘मालूम होना से जुड़े हुए। हमें पता था कि ऐसा ही होणा है। सब को पता था कि उनका स्थान कोई और ले भी नहीं सकता। सब को पता है कि ले दे के घट्टी यूं ही घूमणी है। सब को मालूम था कि राग वही दोहराया जाएगा। पता के ‘ता नुक्ता लगा दें तो पता की जगह ‘पत्ता आ जाणा है। पत्ता पेड़ का। पत्ता बेल का। पत्ता पौधे का। उनकी मरजी के बिना पारटी में ‘पत्ता नहीं खनकना है। वही तो हुआ। हुआ भी वही। यही तो होणा था। धार और धारा दूसरी दिशा में मुड जाए, ऐसा हो ही नही सकता।

मामे रो ब्याव अर मां पुरसण वाळी, ऐसे में दुल्हे के भाणिए-भाणकी और मां के पुत्तर-पुत्तरी भूखे रह जाएं, ऐसा हो ही नही सकता। हम भी तो वही समझा रहे हैं। हम भी तो वही कह रहे हैं कि यह तो होणा ही था। इसको नारे की शक्ल में उछाला जाए तो जोरदार लहर उठेगी। शानदार सुर बिखरेंगे-‘सौगंध पार्टी की खाते हैं.. हम अध्यक्ष वही बनाएंगे..।कोई इसे मजबूरी समझे तो समझे..। कोई इसे खानदानी चमचागिरी समझे तो समझे। कोई इसे विरासत की बेल को सींचना समझे तो समझे..। कोई इसे पार्टी में योग्य लोगों का टोटा समझे..। तो समझे। हम तो ‘पारटी में रहना होगा.. जै मैया-मैया कहना होगा की परंपरा आगे बढा रहे हैं।


कांगरेस अपने पुराने खानदानी उत्तराधिकारी राहुल गांधी को पारटी की सत्ता फिर सौंपने की ओर बढ रही है। भाईजी इससे पहले भी डोर अपने हाथ में रख चुके थे मगर फैल हो गए। इक्के-दुक्के को छोड़कर उनकी अगुवाई में पारटी ने जित्ते भी चुनाव लडे, हार का सामना करना पड़ा। दिल्ली दूर। राज्य भी खिसकते रहे। पारटी गर्त में चली गई तो मैया ने पतवार संभाल ली अब चप्पू वापस भैया को सौंपने की स्क्रिप्ट तैयार हो गई है।

पारटी अपनी कमान किसे सौंपे, यह उसका अंदरूनी मामला है मगर सवाल तो उठेंगे। पहले भी उठे थे, आज भी उठेंगे। उन पर कोई गौर करेगा-इसकी उम्मीद कम है। फिर भी कहने वाले तो कहेंगे कि क्या राहुल के अलावा और कोई योग्य नेता पारटी में नही है? क्या पिटे हुए मोहरे को वापस थोपना पारटी के लिए उचित है? क्या राहुल ही सबसे अनुभवशील है? क्या कांग्रेस गांधी-नेहरू परिवार की निजी संपत्ति है? सवाल भतेरे पर जवाब किसी भी कांगरेसी के पास नही। है तो सिर्फ एक। जिसे हमने शीर्षक बना के टांग दिया-‘अध्यक्ष वही बनाएंगे..। हथाई उठते-उठते खबर आई कि पारटी के वरिष्ठ नेते इस के लिए राजी नही है। यह खबर सच है या झूठ पारटी जाणे और पारटी के काम जाणे। हथाई यूं ही चलती रही है.. चल रही है और चलती रहेगी।