राग से बड़ा दु:ख व त्याग से बड़ा सुख कोई नहीं : आचार्यश्री महाश्रमण

आचार्य महाश्रमण
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आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की पुस्तक ‘कैसे पाएं मन पर विजय’ लोकार्पित

जलतेदीप, छापर (चूरू)। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने रविवार को आचार्य कालू महाश्रमण समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को मानव जीवनोपयोगी प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि सुख आदमी को भीतर से प्राप्त होता है तो वह निर्मल और स्थाई सुख हो सकता है। सुख दो प्रकार के होते हैं-पहला सुख भौतिक पदार्थ जन्य अथवा परिस्थितिजन्य होता है जो अस्थाई होता है। जो सुख परिस्थिति और पदार्थजन्य है, इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला होता है, वह सुख स्थाई नहीं होता, वह अस्थाई होता है।

आचार्य महाश्रमण
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आत्मा से मिलने वाला सुख निर्मल और आत्मिक सुख स्थाई बन सकता है। एक भीतर से मिलने वाला सुख और दूसरा बाहर से मिलने वाला सुख होता है। एक कुंए से पानी निकले और एक पानी कुण्ड से निकले। कुण्ड में जितना पानी है, उतना लेने के बाद तो वह खाली हो जाएगा, किन्तु कुंए का पानी स्रोत से निरंतर आने वाला है। इसी प्रकार आंतरिक सुख निरंतर प्राप्त हो सकता है। बाहर के संसाधनों अर्थात् भौतिक संसाधनों से सुविधा प्राप्त हो सकती है अथवा उसे क्षणिक सुख कहा जा सकता है, किन्तु जो सुख अध्यात्म साधना से प्राप्त होता है, वह वास्तविक सुख होता है। संसाधनों से सुविधा और आध्यात्मिक साधना से सुख की प्राप्ति हो सकती है। आचार्यश्री ने आगे उद्बोधित करते हुए कहा कि सुख-दु:ख, बन्धन और मोक्ष का कारण मनुष्य का मन ही होता है। विषयासक्त मन, भौतिक सुविधाओं में उलझा हुआ मन बन्धन और दु:ख प्रदान करने वाला और अनासक्त तथा आध्यात्मिक साधना में रमा हुआ मन सुख और मोक्ष की दिशा में ले जाने वाला होता है।

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कहा गया है कि राग से बड़ा दु:ख और त्याग से बड़ा सुख नहीं है। मनुष्य के भीतर जैसे-जैसे अनासक्ति की चेतना का जागरण होता है, त्याग, संयम और तप बढ़ता है तो जीवन में संतोष की प्राप्ति होती है और आदमी आंतरिक रूप से सुखानुभूति करता है। यह आंतरिक सुख निर्मल और स्थाई होता है। राग-द्वेष में उलझा बन दु:ख देने वाला और त्याग, संयम और तप में रमा हुआ मन सुख और मोक्ष प्रदायक बन सकता है। जैन विश्व भारती की ओर से परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की पुस्तक ‘कैसे पांए मन पर विजयÓ पुस्तक पूज्यप्रवर के समक्ष लोकार्पित की गई। इस पुस्तक के संदर्भ में साध्वीप्रमुखाजी ने अपनी अभिव्यक्ति देते हुए लोगों को उद्बोधित किया। आचार्यश्री ने इस पुस्तक के संदर्भ में फरमाते हुए कहा कि यह परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की पुस्तक है तो मैं इसके प्रति अपना श्रद्धार्पण करता हूं।

इससे पाठकों को प्रेरणा मिलती रहे। इसके पूर्व प्रात:काल के समय गुरुकुलवासी दो बालमुनियों क्रमश: मुनि खुशकुमारजी और मुनि अर्हम्कुमारजी ने ग्यारह की तपस्या पूर्ण की। इस संदर्भ में दोनों बालमुनियों को उनके आराध्य व गुरु आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपने करकमलों से ग्रास प्रदान किया। अपने गुरु के करकमलों से ग्रास, आशीर्वाद और स्नेह पाकर दोनों बालमुनि पुलकित नजर आ रहे थे।

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