
भगवती सूत्र के आधार पर जैन एकता की दृष्टि से दिया मंगल संदेश
विशेष प्रतिनिधि, छापर (चूरू)। सिद्धांतों में अंतर होने के बाद भी अनेकांतवाद को मानते हुए परस्पर सौहार्द, मैत्री के भाव के द्वारा भी एकता बनाए रखने का प्रयास किया जा सकता है। साथ ही नवकार मंत्र, भक्तामर आदि में एकरूपता की बात भी की जा सकती है। यह बात आचार्य महाश्रमण ने जैन एकता व सकल सिद्धांतों की मान्यता के बाद भी परस्पर सौहार्द व मैत्री जैसे मानवीय गुणों के आधार पर एकता की बात कही। यहां वर्ष 2022 का चतुर्मास कर रहे जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, आचार्यश्री महाश्रमणजी जनता के कल्याण के लिए वर्तमान समय में भगवती सूत्र आगम के आधार पर पावन प्रेरणा प्रदान कर रहे हैं।
नित्य की भांति छापर चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में बने भव्य पंडाल में समुपस्थित श्रद्धालुओं को भगवती सूत्र आधारित आगम के माध्यम से राष्ट्रसंत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि भगवती सूत्र में एक प्रश्न किया गया है कि कोई छदमस्थ मनुष्य केवल संयम और संवर के आधार पर मुक्त हो सकता है क्या? उत्तर दिया गया ऐसा नहीं हो सकता। मनुष्य के दो प्रकार होते हैं-छदमस्थ और केवली। जिसके ज्ञान पर कषाय व मोहनीय कर्म का आवरण पड़ा होता है, वह छदमस्थ होता है और कषायों व मोहनीय कर्मों से मुक्त मनुष्य जिसका ज्ञान अनावरित हो चुका हो, वह केवली होता है। यदि मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति करनी है तो केवलज्ञानी होना आवश्यक ही है। बिना केवलज्ञान प्राप्त किए मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं।
अनेक दर्शनों में एक है बौद्ध दर्शन, जिसका मानना है कि मनुष्य मात्र संयम और संवर करके ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। जैन दर्शन ऐसा नहीं मानता। जैन दर्शन के अनुसार मनुष्य को मोक्ष प्राप्त करने के लिए केवली होना आवश्यक है। अज्ञान, मोह, राग-द्वेष से दूर रहने का प्रयास हो और राग-द्वेष पूर्णतया क्षय हो जाए तो बारहवें गुणस्थान के बाद केवलज्ञान प्रकट हो सकता है। इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिए वीतरागता और केवलज्ञान आवश्यक है। हालांकि मोक्ष की प्राप्ति के अनेक दर्शन हो सकते हैं, जिसे अनेकांतवाद कहा जाता है।

अनेकांतवाद में भी जैन एकता की बात हो सकती है। अगर कोई कहे कि हम मुखवस्त्रिका और वस्त्रों को छोड़ दें। अब ये चीजें हम छोड़ नहीं सकते और दूसरे इसे धारण नहीं कर सकते हैं। सबकी मान्यता है, जो अनेकांतवाद है, किन्तु इसमें भी नवकार मंत्र और भक्तामर को भला कौन जैन नहीं मानता है। जैन सिद्धांतों में भले अंतर हो, किन्तु परस्पर सौहार्द और मैत्री भाव बना रहे तो एकता की बात हो सकती है। अनेकांतवाद की सभी की सभी बातें सही या गलत के विवाद और कलह से दूर रहते हुए अध्यात्म की साधना के पथ पर आगे बढऩे का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने कालूयशोविलास के माध्यम से आचार्य डालगणी की अस्वस्थता, साधु, साध्वियों और श्रावकों द्वारा संघ की व्यवस्था की चिंता और फिर श्रावण सुदी प्रतिपदा के दिन आचार्य डालगणी द्वारा अपने उत्तराधिकारी के नाम को पत्र में लिखना और उसे अपने पु_े में स्थापित करने के प्रसंगों को आचार्यश्री ने रोचक ढंग से सुनाया।
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