रामप्यारों का टीकाकरण!

पहले विचार किया कि बचे-खुचे का उपयोग कर मामला सुलटा दिया जाए, फिर विचार ने पलटी मार दी। एक धारा इधर-दूसरी उधर। क्या पता बचा-खुचा दूसरी-तीसरी लहर बन के फिर बहने लग जाए। ना इंसान का भरोसा ना समय का। किसने सोचा था कि खुद को खुदा समझने वाला बंदा खुदी के घर में कैद हो के रह जाएगा। अकेला नहीं-पूरी कौम और कुनबे के साथ। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
कई बार मन में रह-रह के एक ही सवाल सुलगता है कि आदमी पलटता है या विचार। इस सवाल के आगे भतेरे पूरक सवाल। सवाल तो अनेक सुलगते हैं। उनमें से किसी एक का जवाब मिले, उससे पहले दूसरा तैयार। तीसरे के बाद चौथा। कुल जमा सवालों का क्रम चलता रहता है। सवाल भी बेतुके या अंडक-बंडक नहीं। एकदम ठावे। ठोस और सॉलिड। कई लोगों की आदत होती है कि वो आलतू-फालतू की पंचायती ले के बैठ जाते हैं। बेतुके और बेहूदा सवाल करना उनकी आदत बनता जा रहा है। हथाईबाज इस पर पहले भी कई बार चर्चा कर चुके हैं। अपना सवाल ये कि पलटीबाज कौन? आदमी या उसके विचार। पलटू कौन-आदमी या उसकी सोच। कई दफे समय की मार वो सब कुछ करवा देती है, जिसके बारे में सोचा तक नहीं गया।
पलटना-उलटना की अपनी पलटन है। पलटन बोले तो फौज। पलटन बोले तो लवाजमा। पलटन बोले तो ग्रुप। इन सब का उपयोग समय-काल और परिस्थितियों के हिसाब से किया जाता रहा है। हम बच्चा लोग स्कूली जमाने में कई गीत सम्वेत सुर में गाया करते थे। हमारी इच्छा सैनिक बनने की थी। रेसिस और छुट्टी के बाद हम लोग दो पलटने बना कर धांय.. धांय.. किया करते थे। कभी हम भारतीय-कभी वो। कभी हम दुश्मन देश की पलटन-कभी वो। जीत हमेशा भारतीय सैना की हुआ करती थी। उन दिनों हम विशेष रूप से-‘थ्हारो नाम लिखा दूं रंगरूट.. हो.. जा.. पलटन में.. गीत मन की गहराईयों से गाया करते थे। यह बात जुदा है कि हम सरहद के पहरूए तो नहीं बन सके, कलम के सिपाही जरूर बन गए। तसल्ली इस बात की कि कलम के जरिए समाज की सेवा तो कर रहे हैं। कलम-कागद छोड़कर सरहद पे जाना पड़़े तो आधी रात को तैयार।
बात करें उलटना-पुलटना की पलटन की तो पलट तेरा ध्यान के किधर वाला जुमला कानों में घुलता नजर आएगा। गाड़ी पलटती है। वाहन पलटता है। रेल के कूपे पलट जाते हैं। पूरी की पूरी टे्रन पलट जाती है। बाजी पलट जाती है। बरतन-भांडे-कढाई पलट जाती है। मौसम पलट जाता है। अभी जोरदार ‘तावड़ा थोड़ी देर में झमाझम बरसात। पता नहीं कौन सा ताउते-काउते कब आ के टपक जाए। यहां तक तो ठीक है, मगर सवाल ये कि आदमी पलटता-बदलता है या उसके विचार या उसकी सोच।
सच पूछे तो दोनों का घालमेल जो पलटाव लाता है, वो बड़़ा घातक है। चांद-तारे सूरज ना बदले, ना बदलेंगे। मगर इंसान को बदलते देर नही लगती। उसकी सोच और विचार बदलते देर नही लगती। लगता है-‘पल में तोला-पल में माशा उन्हीं के लिए घड़ा गया है। रंग बदलते मानखों को देखकर गिरगिट को भी शरम आने लग गई है। इन तमाम गवाहों और सबूतों को मद्देनजर रख कर कहा था बचे-खुचे का उपयोग कर लिया जाए या और कुछ बाकी बचेगा। नहीं बचेगा तो तैयार करने वालों की कमी नहीं। अपने यहां एक से बढ़ कर एक आले से आले कुबदकार मिल जाणे हैं। पता नहीं उनका शातिर दिमाग कहां से कहां और कैसे चल जाता है।
हमने अमर आत्माओं से वोट दिलवा दिए। हमने स्वर्गीयजनों के नाम का धान उठा लिया। हमनेे माला पहनी तस्वीरों से मनरेगा में तगारियां उठवा ली। अमर आत्माएं कई राशन कार्डों में बिराजी हैं। अमर आत्माएं कई सालों तक पेंशन और मेडिकल सुविधा का लाभ उठाती रही। अब मृतकों का टीकाकरण भी होने लग गया। स्वर्गवासी टैक्सी में आते हैं। टीका लगवाते हैं और वापस अपने-अपने स्वर्ग भवनों में चले जाते हैं। एक यही बाकी रह गया वो भी हो गया। क्या पता कुबदपंथी और कोई रास्ते निकाल लें। कमीनों का कोई भरोसा नहीं। यहां जिंदों का टीकाकरण नहीं हो पा रहा है और वहां स्वर्गवासियों के टीके लग गए।
हवा डूंगरपुर से आई। वहां कुछ लोगों के मोबाइल पर उनके माता-पिता के पहले-दूसरे डोज लगने के संदेश आए। किसी पर टीकाकरण सर्टिफिके प्राप्त करने के लिए लिंक दिया गया। भाईसेण संदेश पढकर हैरत में। आई को सिधारे छह साल हो गए और उनका टीकाकरण हो रिया है। किसी के बाबा सात साल पहले राम प्यारे हो गए और धरती पे उनका वैक्सीनेशन हो रहा है।
यह दस्तावेजों का गलत इस्तेमाल है या टीका महंगे दामों पर बेचने के लिए रची गई साजिश। जांच के बाद पता चलेगा। सच तो यह है कि रामप्यारों का टीकाकरण कागजों में तो चढ़ गया।