
पिछली खाई तो खूटी ही नही थी कि हांकने वालों की हकाई शुरू हो गई। अभी तो पिछली हथाई की स्याही भी नही सूखी थी कि कैमरा.. एक्शन.. ओके.. कट.. शुरू हो गया। अच्छा हुआ जो मान-मनौव्वल की लाज रह गई। नारी शक्ति ‘भिंभर जाती तो पता नही क्या होता। अब लोग उसके लिए हमें जिम्मेदार ठहरा रहे हैं और हम चाहें तो इसको हथाई का असर कह के खुद की पीठ थपथपा सकते हैं। अपने मुंह मिट्ठू मियां बन सकते हैं। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
असल में देखा जाए तो हमें खुद इस बात का एहसास नही था कि परदा इतना जल्दी उठ जाएगा। हमने तो वही लिखा जो देखा। हमने वही लिखा जो अनुभव किया। सुणी-सुणाई बात पे यकीन करना वैसे भी हमारी फितरत में नही है। कई बार तो दीदें देखे वाकये भी गलत साबित हो जाते हैं। ऊपर से दिखता कुछ और है। यदि हमें श्रेय लेने का चस्का होता तो लेने में एक मिनट नही गंवाते। ऐसा हर स्थान पे हो रहा है। श्रेय लेने की हौड़ सी लगी रहती है। अखबार भी इसमें पीछे नही रहे। उनमें भी श्रेय ओढने की हौड़।
अखबार में छपी किसी खबर पर एक्शन लेने की पूंछ हाथ में आ जाए तो-‘खबर का असर तैयार। अरे भाई, माईक मुंह में डाल कर या फोन पर प्रतिक्रिया लेने पर अथवा रू-ब-रू पूछने पर अफसर एक ही रट्टा मारेंगे.. ‘मामले की जांच करवाई जाएगी। कोई कहता है-‘दोषियों को बख्शा नही जाएगा। किसी की जुबान पर-‘मामले को गंभीरता से देखा जाएगा की राग। जानने वाले जानते हैं कि जांच क रने और कमेटी का गठन होने की बात का अंजाम क्या होता है। ‘खबर का असर का चस्का बड्डे-बड्डे अखबारों को लगा हुआ है। यह बात दीगर हैं कि ‘असर आगे चल कर ‘बे-असर हो जाता है। कई बार दो दिन में तो कई बार पांच-सात दिन में। अफसर भी जानते हैं कि ‘नई बात नौ दिन-खींचताण के तेरह दिन, उसके बाद वही खाटा-पुड़ी और सीरा-पकोडे।
हथाईबाज भी ऐसा कर सकते थे। पर ऐसा इसलिए नही किया कि उनने जो किया वह उनका काम है-और काम करके क्या गिनाणा। कल को नाई अंकल कह देंगे कि हमने नेताजी की दाढी बनाई। धोबी अंकल इतराएंगे कि हम ने मंत्रीजी के वस्त्रों की पे्रस-धुलाई की। ैटैक्सी वाला कहेगा-हम ने यात्री को घंटाघर से रेलवे स्टेशन छोड़ा। अरे भाई, ये अपने-अपने काम है। उनका महिमामंडन क्यूं करना और काहे का करना।
हथाईबाजों ने ‘जीती ये-हांके वो शीर्षक से छपी पिछली हथाई में नाम की जीती महिला जन प्रतिनिधियों की कार्यप्रणाली पर चर्चा की थी। नाम की जीती का खुलासा करना इसलिए जरूरी कि चुनावों में उन का नाम भर था। चुनावों में उन की सिर्फ फोटो थी। कई महिलाएं तो घर के बाहर उसी दिन निकली जब उन्हें चुनावी परचा दाखिल करवाना था। पूरी चुनावी बागडोर उनके परिजनों के हाथ में। पार्टी की बैठक हो तो बात कुछ और वरना महिलाओं ने फार्म पर अंगूठा किया और आने वालों के लिए चाय-पानी-रोटी-साक की व्यवस्था में लगी रही। चुनावों में जो हथकंडे अपनाए जाते हैं, उनके परिजनों ने अपनाए। किस को कितने देणे है।
किस के वोट किस को दबाणे से मिल जाएंगे। फलां को कैसे मनाया जाए। ढीमके को कैसे दबाया जाए। इन सब की जिम्मेदारी पति से लेकर ससुर-देवर-जेठ-भाई-पिता और महिला उम्मीदवारों के अन्य परिजनों ने उठाई। इनमें से ज्यादा प्रत्याशी अशिक्षित और घंूघटवादी। चुनाव जीतने के बावजूद उनकी स्थिति में कोई फरक नहीं आया। सरकार की मंशा रही कि आरक्षण से महिलाओं को बराबरी का दरजा मिलेगा, मगर ऐसा हुआ नहीं। चुनाव जीतने के बावजूद सत्ता उनके परिजनों के हाथ में। ये महिलाएं जहां जावे-वहां इन के परिजन तैयार। महिला सरपंच चूल्हे-चौके में और पंचायती पति के हाथ में। हथाईबाजों ने उसी हांकापंथी को गुणिए में लिया था। क्या पता था कि हांकने वालों को ही बैठकों से हांक दिया जाएगा।
हवा हनुमानगढ़ से आई। वहां नवगठित पंचायत समिति की साधारण सभा की पहली बैठक में महिला जन प्रतिनिधियों के साथ आए उनके पतियों और अन्य परिजनों को सदन से बाहर निकाल दिया गया। इसके अपने कारण हो सकते है। कुरसियां पचास और उन पर पंच-सरपंचपतियों का। पंच-सरपंच चुकी बाई और पंचायती-चंदू काके की। लिहाजा उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। इस पर महिलाएं उखड़ गई। वो भी पतियों के साथ बाहर निकलने को हुई तो अधिकारियों ने समझा कर बहिगर्मन रोका। अफसरों ने नियम समझाए। व्यवस्थाएं बताई, तब कही जाकर नारी शक्ति वापस अपने स्थान पर बैठी मगर उन्हें हांकने वालों को तो हांक ही दिरया गया।
हथाईबाजों को ऐसा आरक्षण न तो कल अच्छा लगा ना आज सुहा रहा है। ऐसी हालत में किस को कितना बराबरी का दरजा मिलेगा या मिल गया-साफ दिख रहा है।