आप-आप रे घरे जाओ….

हमारी सलाह है कि अब बाकी बचों को भी टेंट खाली कर देने चाहिए। पता नहीं उन्होंने किस की शान बढाई, अलबत्ता खुद की और जमात की शान जरूर खराब कर दी। सांच को आंच नहीं याने कि जो खरे हैं उन पर खरोंच नहीं आनी है और जो फरजी हैं, वो बचणे नहीं हैं। आखा देश यही चाहता है कि ना लठकत बचे ना उनको उकसाने वाले टिकैत-सिद्धू और कोई। देशवासी भी यही चाहते हैं कि अब किसानों को बदनाम करने वाले तत्वों की गुंडागर्दी का मुंह तोड़ जवाब दिया जाए। इससे अच्छा तो यही है कि ”आ…अब लौट चले… के सुर तेज कर दिए जाएं। शहर की सभी हथाईयों पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

हथाईबाजों ने ”किसानियत पर कलंक शीर्षक से छपी पिछली हथाई में गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में हुए बवाल पर जम के लानत भेजी थी। किसानों की खाल में छुपे उत्पातियों ने राष्ट्रीय पर्व के दौरान दिल्ली में जो बखेडा किया उसकी जितनी निंदा की जाए कम है। अब ऐसा लग रहा है कि सिर्फ निंदा से काम नहीं चलने वाला। हम लोग हर गंभीर मसले – मुद्दे की निंदा कर इतिश्री कर लेते हैं। बहुत हो गई निंदा। बहुत भेज दी लानत। निंदा-जहालत करने भर से ढीट-मक्कार और हलके लोगों की सेहत पे कोई फरक नहीं पडऩे वाला। अब कहावतों को हकीकत में उतारने की जरूरत है।

अपने यहां कहावतों का अकूत खजाना भरा पड़ा है। अव्वल तो एक-एक को गिनाणा संभव ही नहीं, कोई गिनाणे बैठ जाए तो कैलेंडर बदल जाणे हैं। पर जिस मुद्दे को लेकर चर्चा की जा रही है उसमें खास तौर पे दो कहावतों पर पत्रवाचन करना जरूरी है। ऐसा लगता है कि कहावतकारों ने एक लंबा अनुभव प्राप्त करने के बाद उन्हें शब्दों में पिरोया। पहले देखा। फिर परखा। फिर जांचा। फिर समझा। फिर हर कोण से टटोला उसके बाद उन्हें कसौटी पे कसा। एक के तार घी और दूसरी के तार लातों से जुड़े हुए। सीधी अंगुली घी ना निकाले तो टेढी करनी पड़ती है। जानने वाले इसका अर्थ बखूबी जानते हैं। इस पर कुछ लोग एतराज जता सकते है।

उनका कहना है कि अंगुली टेढी करने की बजाय घी पिघला दिया जाए तो ठीक रहेगा। जवाबी फायर ये कि आग जलाने से बेहतर अंगुली टेढी करना ठीक रहेगा। आग लगेगी तो तकलीफ उन्हीं को होगी। दूसरी कहावत है लातों के भूत बातों से नहीं मानते। इसकी परिणिति हम कई बार देख चुके है। सरकार ने फरजी किसानों को भतेरा समझाया। सरकार को जितना झुकना था झुकी। लल्ला पुच्चू की।

भाईबिरे से समझाया। इतनी ढील देने के बावजूद जो मिला उसे आखे देश ने देखा। किसानों के भेष में छुपे बवालियों ने तिरंगे का अपमान किया। दिल्ली में उत्पात मचाया। पुलिस वालों को दौड़ा-दौड़ा के मारा। ये उत्पाति दो माह से दिल्ली को घेर कर बैठे हैं। देश को हजारों-हजार करोड़ का नुकसान हो चुका है। बहुत हो गया भाई… अब पानी नाक के ऊपर जा रहा है। लातों के भूतों के लिए अब बातचीत के दरवाजे बंद। जो लोग इतना होणे के बाद भी टेंटों में पड़े हैं उन्हें अपने-अपने घरों में लौट जाना चाहिए।


हथाईबाज इस स्थिति के लिए खुदगर्ज नेतों और संगठनों को भी बराबर का गुनहगार मानते हैं। फरजी किसान कह रहे थे कि तीन-चार माह का राशन साथ ले के आए है। इस के माने ये कि वो हंगामा करने की तेवड़ के आए थे। एक तो उनने सीमाएं सील कर दिल्ली वालों को बंधक बना दिया और दूसरी तरफ कई सियासी और अन्य संगठनों ने उन की खातिरदारी शुरू कर दी। फरजियों के लिए चाय-नाश्ते से लेकर लंगर की व्यवस्था। उन के मनोरंजन के इंतजाम। कोई आ रहा है कोई जा रहा है। कोई उकसा रहा है। कोई चिंगारी भड़का रहा है। कोई आग लगा रहा है। अब, जब लाल किले पे काला दाग लगाने की कोशिश हुई तो लगा जैसे सांपों को दूध पिलाया गया हो। पता नहीं वो लोग किस दड़बे में दुबककर बैठे हैं जो कल तक उनकी मनुहार कर रह थे। ये मनुहार मल भी कम गुनहगार नहीं।
हथाईबाजों का कहना है कि बहुत हो गया। हाथ पे हाथ रखकर बैठना अब ठीक नहीं है। जो संगठन इन फरजियों का साथ छोड़कर कर चले गए उनका स्वागत है। अन्यों से भी आग्रह है कि अपने-अपने घर जाएं। नहीं तो उन लोगों के अक्कल-बक्कल उतार दिए जाएं। जिन्होंने सुरक्षा बलों के बक्कल उतारने की चेतावनी दी थी। इस से अच्छा है कि ”आप-आप रे घरे जाओ…। इसी में सब की भलाई है। हथाई उठते-उठते खबर आई कि दिल्ली की सीमाएं खाली होनी और करवानी शुरू हो गई। उम्मीद है कि आज-कल में पूरी दिल्ली उपद्रवियों के चंगुल से मुक्त हो जाएगी। हो सकता है इससे पहले भी हो जाए। जो होगा वह सामने आ जाएगा।