वा ही संखी सोवणी, म्हैं हूं संख ढपोळ।
देण-लेण नै कुछ नहीं, हामळ भरूं करोड़।।
वह तो सोहनी शांखिनी थी, जो चाहे दे देती थी, लेकिन मंै तो ढपोरशंख हूं, जो कुछ भी नहीं देता, लेकिन देने की हां जरूर भरता हूं और करोड़ बार भरता हूं।
एक ब्राहृाण ने भगवान की बहुत सेवा पूजा की। आखिर भगवान उस पर एक दिन प्रसन्न हो ही गए। वह ब्राहृाण बहुत ही गरीब था, इसलिए भगवान ने उसे एक छोटा सा शंख दिया और कहा कि इस शंख की पूजा करके तुम जो भी चीज शंख से मांगोगे वह तुम्हें तत्काल प्राप्त हो जाएगी।
ब्राहृाण वह शंख पाकर निहाल हो गया। उसने उस शंख से अपने रहने के लिए अच्छा मकान बनवा लिया, खाने-पीने और पहनने ओढने की सभी मनचाही चीजें भी प्राप्त कर ली। अचानक उसकी बदली हुई दशा को देखकर उसके पड़ोसी को ईष्र्या हो गई। उसने अपनी स्त्री को ब्राहृाण के घर इसका भेद जानने के लिए भेजा। ब्राहृाण की स्त्री भोली थी, उसने उसे सारी बात बतला दी।
तब पड़ोसी ने अपनी स्त्री ने कहा कि मौका देखकर तुम वह शंख चुराकर ले जाओ। और एक दिन मौका पाकर वह शंख चुरा ले गई। अब तो ब्राहृाण बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उसने और कोई उपाय न देखकर फिर से भगवान ने दुबारा उसे दर्शन दिए और कहा कि ऐसी अलम्य वस्तु को इस प्रकार लापरवाही सेे नहीं रखना चाहिए था। खैर इस बार तुम्हें एक बड़ा शंख देता हूं, जिससे तुम्हें मिलेगा तो कुछ नहीं, लेकिन तुम्हारा वह शंख वापिस आ जाएगा।
ब्राहृाण ने शंख लाकर उसकी पूजा की और उससे सौ रूपये मांगे तो शंख ने बड़ी जोरदार आवाज में कहा कि सौ ले, दो सौ ले, हजार ले दस हजार ले। लेकिन दिया एक पैसा भी नहीं। इसी प्रकार वह ब्राहृाण जब कोई एक वस्तु मांगता तो वह उसे कई वस्तुएं देने की घोषणा करता, लेकिन देता कुछ भी नहीं। पड़ोसी ने देखा कि अपने वाला शंख तो छोटा है, मांगने पर सिर्फ एक ही वस्तु देता है और ब्राहृाण जो शंख अब लाया है, वह सौ रूपये मांगने पर दस हजार देता है।
इसलिए उसने फिर अवसर पाकर बड़ा शंख चुरा लिया और छोटा वहीं रख आया। घर आकर उसने शंख से एक घोड़ी मांगी तो शंख ने कहा कि एक घोडी ले, दो घोड़ी ले, दस घोड़ी ले, ऊंट ले, हाथी ले। लेकिन देने को वहां क्या था। अब पड़ोसी पछताने लगा, लेकिन अब क्या हो सकता था। वह शंख तो चला गया।