
भैरव डर किण बात रो, जो अपणै मन सांच।
आपै परगट होवसी, ओ कंचन ओ कांच।।
यदि अपने मन में सत्य हैं, तो फिर डर किस बात का? क्योंकि सत्य तो प्रकट होकर रहता है और यह सामने आ जाता है कि यह तो सोना है और यह कांच।।
सिवाणा के पास महेवास नगर आया हुआ था। उस नगर में सुलतान नामक सेठ रहा करता था। उसकी पत्नी का नाम धनश्री था। धनश्री की एक सहेली थी जिसका नाम सुरूपा था। एक दिन सुरूपा अपनी सहेली धनश्री के पास मिलने आई और दोनों आपस में बातें करने लगी।
उस दिन धनश्री का बत्तीस रत्नों वाला मूल्यवान हार खूंटी पर टंगा हुआ था। उस खूंटी के ठीक नीचे एक तैल-पात्र पड़ा हुआ था, जिसके कोई ढक्कन नहीं था। एक दौड़ता हुआ चूहा उस खूंटी पर चढा तो वह हार उस तैल पात्र में गिर पड़ा। उसे तैल पात्र में पड़ते हुए किसी ने भी नहीं देखा। थोड़ी देर बाद जब दोनों सखियां बातें खत्म कर चुकी तो सुरूपा अपने घर लौट गई। उधर जब धनश्री को खूंटी पर टंगा अपना हार नहीं मिला तो उसने सोचा कि घर में सुरूपा के सिवाय तो कोई घर में आया नही है, अत: अवश्य वही मेरा हार ले गई है। धनश्री चिंता में पड़ गई। जब सेठ सुलतान भोजन करने के लिए घर आया तो उसने धनश्री को उदास देखा। उसने उससे उदासी का कारण पूछा। तब धनश्री ने हार खोने का वृतांत कहा।
तब सेठ सुलतान सुरूपा के पति के पास गया और उसे हार के खो जाने की घटना से अवगत कराया। सुरूपा का पति अपने घर गया और उसने सारी बात बताकर कहा कि तुम्हारी सखी का मानना है कि वह हार तुमने चुराया है। अपने घर कलंक आने की बात जानकर सुरूपा को अत्यंत दुख हुआ। सुरूपा के प्रति ने उसे निर्दोष जानकर सेठ सुलतान से जाकर कहा कि मित्र मेरी स्त्री ने तुम्हारा हार नहीं लिया है तो उसी के समान मूल्य वाला यह मेरा हार स्वीकार करो। सेठ सुलतान ने वह हार लेकर अपत्नी पत्नी धनश्री को दे दिया।
सारी बात गुप्त रूप से ढकी रह गई। जब उस तैल पात्र का तैल धीरे धीरे बिक गया और नीचे मैल में लिपटा हुआ हार निकला तो सेठ सुलताना को बडी भारी चिंता हुई। उसने सोचा कि मेरे जैसा पापी कौन होगा, जिसने सुरूपा जैसी सती साध्वी महिला को मिथ्या कलंक लगाया और उसका हार लेकर चांडाल कर्म किया। वह पश्चात्तापपूर्वक सुरूपा का हार लेकर उसके घर गया और उसके चरणों में गिर कर क्षमा याजनापूर्वक हार सौंप आया। सुरूपा को अपने कलंक उतरने और हार के मिल जाने से अत्यंत प्रसन्नता हुई।