
कोरोना काल ने कितना तडफ़ाया। कितना तरसाया। कई लोगों ने अपनों को खोया। कई के आंगन सूने हो गए। कई के बुढ़ापे की लाठी टूट गई। कई बच्चे यतीम हो गए। अब प्रभू से यही विनती है-‘मेरे परम पिता परमात्मा.. कर सब दुखां दा खात्मा..।ऐसी आपदा-विपदा आइंदा नहीं आए। हमारे पीएम सर ने आपदा को अवसर में बदलने की सीख दी थी।
कई लोगों ने बदला भी। हर भारतीय और हर भारत वंशीय ने अपने-अपने हिसाब से इस त्रासदी से जंग लड़ी। पहली लहर को हराया अब दूसरी की बारी है। खुदा ना करे तीसरी आए। आएगी तो उस से भी निपटेंगे। हमने जंग लडऩे के साथ-साथ उन पुरानी परंपराओं को भी ताजा कर लिया। जिसे लोगबाग बिसरा चुके थे। नई नरुल तो उनका ककहरा भी नही जानती। हमने वो पुराने पन्ने खोल के रख दिए। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
हम कोरोना के काले पहलू की ओर जाना नहीं चाहते। आखा देश जानता है कि इसकी वजह से हम-आप ने क्या-क्या भुगता। क्या-क्या देखा। क्या-क्या सहा और क्या-क्या सहतें जा रहे हैं। पता नहीं आगे और क्या-क्या सहना-भुगतना पड़ेगा। जिस पहलू की तरफ जाना चाहते हैं उसे उजाला या सुनहरा इसलिए नही कह सकते कि इस काल ने रूलाया बहुत। बीच का पहलू ठीकठाक इसलिए कहा जा सकता है कि इस दौरान वो दिन फिर देखने को मिल गए और मिल रहे हैं, जिन्हें समय-काल और परिस्थितियों ने एक कोने में पटक दिया था। वही लदे दिन कई परिवारों के वास्ते संकट से लडऩे का हथियार साबित हुए। हम ने तो गुजरा कल एक बार फिर देखाभाला।
नई नस्ल से भी उसका परिचय करवा दिया। नई पीढी को भी इस बात का एहसास हो गया कि हम हमारे बखत की जो बातें उन्हें बताते थे वो कहानियां नही हकीकत है। कोरोनाकाल ने उस सच्चाई से सामना भी करवा दिया। नई नस्ल को भी इस बात का एहसास हो गया कि ‘डागळा डीनर के आगे सारे डीनर-लंच-ब्रेकफास्ट फीके हैं। जिन लोगों ने नहीं किया, वो कर सकते हैं। खुद सरकार यह अवसर दे रही है तो क्यूं नहीं ‘डागळों पे बहार बिखेरी जाए।
कोरोनाकाल के पहले दौर में हम लोगों ने जो दिन गुजारें उनमें आई-बाबा का जोरदार योगदान रहा। तब जो कुछ हुआ वो अचानक ही हुआ था। ना सावचेत किया-ना सचेत। एकदम देशभर में लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई। इससे पूर्व हम-आप ने थाली-घंटिया बजाई। शंखनाद किया। अंधेरे में डूबे। नतीजा नहीं निकला तो आखे देश को घरों में कैद कर दिया गया। अचानक हुई तालाबंदी के कारण हर कोई होजकोज हो गया। उन दिनों में जो परंपरागत टोटके काम आए उनसे उनकी अहमियत और ज्यादा बढ गई। आई के जमाने की महिलाएं घर में ड्योढा रखती हैं।
इसके माने रसोई का सामान एक्स्ट्रा। इन के अलावा घर में बनाई वस्तुओं का भंडारण भी। पहले लॉकडाउन के दिनों में घर में बनाए पापड़। बडि़एं। खीचिए। सलेवड़े और सेवइयां खूब काम आई। रसोई का एक्स्ट्रा रखा सामान भी खूब काम आया। जो बहुएं एक्स्ट्रा सामान को बोझ और पापड़-बडियों को कचरा समझती थी उन्हें उनका महत्व पता चल गया। उन्हें ड्योढे का अर्थ समझ में आ गया। इनके इतर दालें-काचरिए-चावल और अन्य सूखी सामग्री ने भी जम के साथ दिया। कुल जमा घरबंदी का समय आराम से गुजर गया।
कुछ दिनों की राहत के बाद देश को एक बार फिर तालाबंदी का सामना करना पड़ गया। शुक्र है कि राजस्थान में कुछ छूटे मिल गई। अब उनमें और ज्यादा राहतें दी गई हैं। पहले कुछ चुनिंदा दुकाने खुलने का समय सुबह 6 से 11 बजे तक निर्धारित था अब सारी दुकानों को सुबह 6 से अपरान्ह 4 बजे तक खोल दिया गया है। इस से जनता के साथ आम दुकानदारों को भी राहत मिली है। हथाईबाजों का कहना हैं कि ऐसे में ‘डागळा डीनर का आनंद लिया जाए।
नई नस्ल के लिए ‘डागळा और ‘तिपड़ा शब्द अजब अजीब। वो टेरेस समझ जाएंगे। छत समझ जाएंगे मगर ‘डागळा समझ के बाहर। जब कि हमारे टेम में ‘डागळों की शान ही अलग होती थी। गर्मी के दिनों में शाम को छत पर पानी का छिड़काव कर बिछौने बिछाए जाते। रात को पूरा कुनबा वहीं शामिल होता। कभी अंत्याक्षरी तो कभी फिल्मों के नाम। कभी नृत्य तो कभी कहानी-किस्से। टोले-मौहल्ले के हर ‘डागळे आबाद रहते। शादी-ब्याहों के जीमण ‘तिपड़े पर होते। कम पड़ जाएं तो पड़ोसी की छत तैयार।
पतंगों के मौसम में हर छत आबाद हथाईबाजों का कहना है कि वापस ‘डागळों को याद करने का समय आ गया है। चार बजे के बाद पूरा कुनबा घर में। शाम पड़े ‘तिपड़े पर पानी छिड़क कर बिस्तर बिछा दो। खाना और बरतन भांडे लेकर ऊपर चढ जाओ और परिवार के साथ बैठ कर भोजन करो। जब केंडिल लाइट डीनर हो सकता हैं तो ‘डागळा डीनर क्यूं नहीं। सिर्फ नाम ही तो बदला है। शाम-रात को छत पर बैठ कर भोजन करने की प्रथा पुरानी है। क्यों ना उसे फिर से यादगार बना दिया जाए। तो चलें डागळे पे।
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