दिव्यांग को कूटने वाले वीर पुलिस

अगर ये पुरूषार्थ हैं, तो धिक्कार है ऐसे पुरूषार्थ और पुरूषार्थियों पर। अगर ये लिप्सारहितपना है, तो लानत है ऐसे लिप्सारहितों से। अगर ये सहयोग हैं तो ऐसा सहयोग किसी को नहीं चाहिए। अपना सहयोग अपने पास रखों। ऐसा सहयोग ठेंगे पे। ऐसा सहयोग तुम्हीं को अरपण। ऐसी वीरता अपराधियों को खौफजदा बनाने में दिखाई होती तो लोगों का साथ और सहयोग मिलने की पूरी गुंजाइश रहती वरना अपराधी उनके हमप्याला-हम निवाला और शरीफजादों में खौफ। आम आदमी डरा-सहमा। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

पुरूषार्थी-लिप्सारहित-सहयोगी। इन तीनों के पहले अक्षर को जोड़े तो बनेगा। ‘पुलिस। इस का किताबी अर्थ यह निकलता है कि पुलिस जम के पुरूषार्थ करती है। लिप्सा-लोभ-लालच और घूसपंथी से दूर रहती है और सबका सहयोग करती है। यह पुलिस की किताबी परिभाषा कहलाती है। वास्तविक जीवन में पुलिस कैसी भूमिका निभाती है। बताने की जरूरत नहीं। गली में अगर खाकीवर्दी संप्रदाय का व्यक्ति दिख जाए तो सारे लोग बैचेन हो जाते है। पूरी गुवाड़ी में खुसुरफुसुर शुरू हो जाती है।

हमें नहीं पता कि पुलिस की यह परिभाषा किस ने कब और किस चौघडि़ए में घड़ी। किसी अकेले बंदे ने घड़ी या पूरी ज्यूरी बिठाई गई थी या कि किसी साहित्यकार से डंडे के जोम पे घड़ाई गई। पांच-सात पुलिस वाले आधी रात को उसके घर धमक गए होंगे। नींद से उठा के थाने ले आए और हुकम दे डाला-‘भाईजी, पुलिस की ऐसी परिभाषा घड़ो कि पढणे वाला मस्त हो जाए। हम तो हैं जैसे हैं। हम ना बदळे हैं, ना बदळना चावें। तू इसपे ध्यान मत दे। बस, बढिया सी परिभाषा घड़ दे। ‘

बिचारे साहित्यकार ने पांच-पच्चीस परिभाषाएं बना दी। अंतिम मुहर पुरूषार्थी-लिप्सारहित..सहयोगी.. पे लगाई गई। उसके बाद सुबह दस-ग्यारह बजे उसे थाणे से पैदल रवाना कर दिया गया। इस एक एपिसोड को देखकर ही भाईसेणों ने अंदाजा लगा लिया कि पुलिस वाले कितने पुरूषार्थी है। उधर परिभाषा घडऩे वाले बंदे ने घर जाकर ‘हिनान-हम्पाड़ा करके भगवानजी की पूजा की होगी। भगवान के आळे के सामने या घर में बने देवालय में बैठकर प्रायश्चित किया होगा। कान पकड़ के कहा होगा-‘भगवान मुझे माफ करना, मैने ऐसी परिभाषा लिख दी जो ज्यादातर पुलिस वालों से प्वाइंट वन परसेंट भी मेल नही खाती। साची-साची लिख देता तो पुलिस वाले गत बिगाड़ देते। मैने जो कुछ किया।

जो कुछ लिखा। मजबूरी में लिखा। डंडे-बेल्ट से डर से लिखा। मुझे माफ करना प्रभू..। ‘ जहां तक हमारा अंदाज है, भगवान ने भी उसे क्षमा कर दिया होगा। कहते हैं कि यदि किसी के झूठ बोलने से किसी की जान बचती है तो बोलने में पाप नही लगता। उसने तो खुद की जान बचाने के लिए इत्ता बड़ा झूठ बोला। झूठ बोल वो तो बच गया। आज हालात ये कि भाईसेण इस परिभाषा का माखौल उड़ा रहे हैं।

पुलिस विभाग के अपने कुछ चुनिंदा जुमले हैं। इसमें कुछ नया नही है। हर विभाग के अपने जुमले होते हैं जो यहां-तहां उछलते देखे जा सकते हैं। अस्पतालों में ‘कृपया शांति बनाए रखे और कृपया स्वच्छता बनाए रखने से हमारा सहयोग करें जैसे जुमले लटके मिल जाएंगे। इनसे मिलते-जुलते जुमले अन्य विभागों में लिखे-लटके दिख जाएंगे। पुलिस वाले कहते हैं-‘मेरे योग्य कोई सेवा। वो लिखवा भले ही लें मगर उनकी सेवा करना या उनकी सेवा लेना दोनों घातक साबित होते हैं।

उनका एक और जुमला है-‘अपराधियों मे खौफ-आम जनता में विश्वास असल में हो इसका उलटा रहा है। भाई टाईप लोगों का पुलिस से जोरदार याराना और आम आदमी पुलिस से खौफजदा। एक पत्रिका में छपा कार्टून इसकी जीती-जागती मिसाल। जिसमें एक महिला को एक मवाली से यह कहते दर्शाया गया कि ‘भाईसाब, मुझे गली पार करवा दो.. आगे पुलिस वाला बैठा है।

पुलिस पुराण इसलिए बांची कि हमारे वीर जवानों ने ऐसी बहादुरी दिखाई कि लाइनहाजिर होना पड गया। हथाईबाज जैसे अफसर होता तो वर्दी-अकल-बकल उतरवा के घर भेज देते पर हमजात वाले एक-दूसरे को बचाते हैं लिहाजा कुछ दिन लाइ में। उसके बाद वही कुटाई-वही हफ्ता वसूली।

हवा भीलवाड़ा के मांडल से आई। वहां एक मंदिर क्षेत्र में मेला भरता है। मेले में दुकाने तो लगती ही। दिव्यांग टैंपो में जूते-चप्पल सजाकर बेचने बेचने पहुंच गया। वहां दो सिपाहियों से उसकी खटपट हो गई। कोई कहता है वसूली को लेकर ऐसा हुआ। कोई कुछ और ही कह रहा हैं। कुल जमा लुहारिया चौकी के उन दो शूरवीर जवानों ने दिव्यांग को इतना कूटा कि वो खड़ा होने के भी लायक नही रहा। शूरवीरों ने भगवान के सताए उस विकलांग को बाल पकड़ के जमीन पे घसीटा। इसका वीडियो वायरल हुआ तो एसपी सर ने उन्हें लाइन हाजिर कर दिया। हथाईबाजों ने भी वीडियो देखा। देखकर उन वीरों की कायराना हरकत पर लानत डाली। कहा-‘अपराधियों में भले ही पुलिस का खौफ ना हो। गरीबों में जरूर दिख जाएगा।

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