खाया-पिया निकालने का समय

अपने यहां ‘जीमिया पछै चुळू वाली कहावत आम है। इसका हिन्दीकरण किया जाए तो निकलेगा-‘खाना खाने के बाद कुल्ला करना।और अंदर जाएं तो अर्थ निकलेगा-‘खाना खा लिया, कुल्ला कर लिया-एक काम खल्लास। कई लोग इस कहावत को अपनी कलाकारी के साथ परोसते है। कलाकारी वो समझते हैं।

हमारी नजर में वो कुबद से कम नहीं। कहते हैं-‘खाया पछै चुळू। उसमें और इसमें फरक सिरफ खाना और जीमिया का। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे। समाज में कुबदकारों की कमी नहीं एक ढूंढो-पंद्रह सौ मिल जाएंगे। हालात ये कि वैसे लोगों को तलाशने की भी जरूरत नहीं। हर साख पे बिराजे मिल जाएंगे। किसी जमाने में साखों पर किसका कब्जा होता था-बताने की जरूरत नहीं। सुधि पाठक अच्छी तरह जानते हैं।

कोई नहीं जानता हो, ऐसा संभव नही है फिर भी मान लेते है कि कुछ को पता नही होगा या कि वो पता नहीं होने का उपक्रम कर रहे हैं। ऐसों के लिए हम है नां। हम बता देते हैं कि हर साख पे कौन बिराजे थे, ताकि कोई ये ना समझ बैठे कि हमें इस बारे में पता नही है या कि कोई यह ना समझ बैठे कि हम जानकारी साझा करने में कंजूसी बरत रहे हैं। बड़े-सयाने कहते हैं कि ज्ञान बांटने से बढता है। हम भी उसी लीक पे चल रहे हैं। इस पर ज्ञान-जानकारी साझा करने का ठप्पा लगाना उचित होगा या नहीं, आप जाणो। हम तो वही दोहरा रहे हैं जो हमारे वरिष्ठजन खुल्ले-खाले में कहा करते थे-‘हर साख पे उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा।

यहां यह साफ कर दें कि हम ने हर साख पे उल्लू बैठा कभी नहीं देखा। अगर इन पंक्तियों में सच्चाई होती तो एक पेड़ पे कम से कम सौ-पचास उल्लू बैठे दिख जाते। एक पेड पे इत्ते तो देशभर के पेड़ों पे कित्ते उल्लू बैठे दिख जाते, इस का अंदाजा लगाया जा सकता है। देश की जनसंख्या से कई गुणा ज्यादा उल्लू संख्या दिखाई देती। क्यूंकि यह कहाई कहावत की कोख से निकली है लिहाजा उसे कहावत के हिसाब से ही लेना चाहिए। हमने गौर ही करना है तो उल्लू की जगह चिडिय़ा की आंख पे करें तो ज्यादा बेहतर रहेगा।

हमें ना पेड़ दिख रहा है ना चिडिय़ा। सिर्फ आंख दिखाई दे रही है। हम लक्ष्य की तरफ ध्यान दें तो ज्यादा बेहतर रहेगा। आज हालात ये कि उल्लू-चिडिय़ा तो छोड़ों मानखा जाति वृक्ष-जंगलों के पीछे पड़ी हुई है। जबकि पेड़ प्रकृति का सिणगार है। वृक्ष जीवन के लिए जरूरी है। हम वृक्षबंधु बनने की बजाय वृक्ष कटुआ बनते जा रहे हैं। एक बात याद रहे कि हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर तो रहे हैं, उसके नतीजे भी भुगतने होंगे। आगे-आगे भुगत भी चुके हैं। प्रकृति जब तांडव मचाती है तो कितनी तबाही मचती है।

आखी दुनिया देख चुकी है। अब भी नहीं सुधरे तो तीसरी लहर की आशंका गहरा रही है। कई लोगों को कुबदकार पर हैरत हो रही होगी। जब कलाकार और चित्रकार हो सकते हैं। जब गीतकार और संगीतकार हो सकते हैं तो कुबदकार क्यूं नहीं। हांलांकि कुबदी की तुलना उनसे करना ठीक नहीं है मगर हथाई पे जो नहीं चलता उसे भी दौड़ा दिया जाता है। यहां थूकना मना हैं से ‘मना उचका देना। यह वाहन खड़े ना करें में से ‘ना गायब कर देना। ये सब कुबद नही तो और क्या है। देश के प्रधानमंत्री स्वच्छता का संदेश दे रहे हैं और वो कचरा यही टेको पे टिके हुए है। यह कुबद नहीं महाकुबद है। मगर ‘जीमिया पछै चुळू की काट में ‘खायो-पियो निकाळ दूं ला कुबद नहीं धमकी है-चेतावनी है, जो कभी सच साबित हो सकती है।

तो कई दफे गीदड़ भझकी लगती है। पण हथाईबाज जिस की बात कर रहे हैं उसमें चेतावनी का पलड़ा भारी। उनने समझा कि खा-पी लिया और डकार भी ले ली अब कौन-क्या बिगाड़ लेगा। भाईसेण भूल गए कि खाया-पिया निकालने वाले भी भतेरे बैठे हैं। ऐसे लोग भी हैं जो मुंह में मुंह डाल कर निकालने का माद्दा रखते हैं। वह भी सूद सहित। यकीन ना आए तो हम बता देते हैं। जोधपुर में सतरह सौ और कोटा में साढे ग्यारह सौ से ज्यादा कर्मचारियों ने अपना नाम फर्जी तरीके से खाद्य सुरक्षा योजना में जुड़वा लिया और दो रूपए प्रति किलो के हिसाब से गेंहू उठाते रहे। यह खेल तीन साल तक चला आखिर में भांडा फूटा तो पता चला कि भाई खा-पी के चुळू करते रहे।

कई ने तो रोटी जीमी और कई ने दो रूपए प्रति किलो वाला गेंहू 15-20 रूपए किलो बेच दिया। अब खाया-पिया निकाला जा रहा है। शासन-प्रशासन ने ऐसे लोगों की सूची तैयार कर 27 रूपए प्रति किलो के हिसाब से वसूली शुरू कर दी। कई ने तो पैसे जमा करवा दिए। कई बचने के गली-रास्ते ढूंढ रहे है, पण प्रशासन साफ कह दिया कि पैसा हर हाल में वसूल होगा। भाईबीरे से जमा नही करवाया तो तनखा में से कटौती की जाएगी।

सवाल ये कि सिर्फ जोधपुर व कोटा जिले में ऐसे खाऊ करमचारी मिले तो पूरे राज्य और पूरे देश में जीमजुमा के चुळू करने वाले कित्ते होंगे। इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। उनका सब का खाया-पिया निकालना तो बनता है। हम तो कहें कि हर सरकारी योजना के लाभान्वितों की सूची का गहराई से पोस्टमार्टम होना चाहिए। ऐसा हुआ तो लाखों-करोड़ों का खाया-पिया निकलना तय। आप क्या कहते है?

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