
जयपुर। अन्नु/शर्मिला । राजस्थान अपने स्वर्णिम इतिहास ,राजसी महलों ,किलों ,संस्कृति एवं ऐतिहासिक इमारतों के लिए तो प्रसिद्ध है ही ,साथ ही प्राचीन काल से हस्तशिल्प के क्षेत्र में भी विश्व विख्यात रहा है । भारत हस्तशिल्प का सर्वोत्तम केंद्र माना जाता है। भारत में प्रत्येक राज्य के अपने विशिष्ट हस्तशिल्प हैं। उदाहरण के तौर पर कश्मीर के पश्मीना शॉल , आंध्रप्रदेश की पोचमपल्ली की सिल्क साड़ी, तमिलनाडु की कांजीवरम साड़ी, राजस्थान के चमकते हुए नीले बर्तन, मीनाकारी आदि। हस्तशिल्प सदियों पुराना एक कलात्मक कार्य है जिसे शिल्पकार व्यवसाय के साथ- साथ अपनी विरासत के प्रति सम्मान के प्रतीक के रूप में देखते हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि राजस्थानी हस्तशिल्प यहां की पहचान के प्रतीकों में से एक है। ऐसा ही एक मुख्य हस्तशिल्प है – ब्लू पॉटरी जिसे जयपुर के पारंपरिक शिल्प के रूप में विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त है जबकि यह मूल रूप से तुर्को फारसी है। ब्लू पॉटरी का नाम आकर्षक नीली डाई से आया है जो कि मिट्टी के बर्तनों को रंगने के लिए इस्तेमाल की जाती है।

कैसे हुई शुरूआत
गुलाबी नगरी जयपुर में ब्लू पॉटरी शुरू करने का श्रेय मानसिंह प्रथम को जाता है लेकिन इस कला का विकास सवाई राम सिंह के समय में हुआ। दुर्गेश दोराया जो जयपुर ब्लू पॉटरी आर्ट सेंटर के मालिक व राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता और मास्टर कारीगर अनिल दोराया के बेटे हैं जिनका परिवार नौ पीढिय़ों से ब्लू पोटरी की प्राचीन व जीवंत कला रूप को एक स्तर से दूसरे स्तर पर ले जाने के लिए कार्यरत हैं, उनसे हुई बातचीत के दौरान दुर्गेश जी ने बताया कि कैसे ब्लू पॉटरी की शुरूआत हुई। एक बार जब जयपुर के शाही घराने में पतंगबाजी हुई तब राजा ने कहा कि जो भी कोई उनकी पतंग को काटेगा वो इनाम का हकदार होगा, तब दुर्गेश जी के दादा जी के दादा जी श्री सीताराम दौराया ने वह पतंग काट दी। जब उनसे पूछा गया कि यह कैसे किया तो उन्होंने बताया कि उन्होंने धागे पर शीशे का आवरण चढ़ा दिया था। राजा ने उनकी सराहना की एवं उन्हें ईरान के एक शहर किरमान में पोटरी हस्तकला को सीखने के लिए भेजा जो मुख्य रूप से चिकनी मिट्टी से बनाई जाती थी। जब सीताराम दोराया भारत वापस लौटे तब उन्होंने पोटरी कला को स्वदेशी रूप देने के लिए उसे पत्थर से बनाने की कोशिश की जो कि भारत में उपलब्ध थे चूंकि पत्थर में इलास्टिसीटी नहीं होती इसीलिए उन्हें इस कार्य में सफलता नहीं मिली। तत्पश्चात उन्होंने पत्थर में मुल्तानी मिट्टी, गम अरेबिका, क्वार्ट्ज, हरा कांच आदि मिलाकर पेस्ट तैयार किया और अंतत:उनकी स्वदेशी रूप से पॉटरी बनाने की कोशिश कामयाब हुई और इसी तरह जयपुर में ब्लू पॉटरी की शुरूआत हुई। इतिहासकारों के अनुसार जयपुर मेंं ब्लू पॉटरी की शुरूआत की कहानी कुछ इस प्रकार है- राजा सवाई राम सिंह द्वितीय ने एक पतंगबाजी सत्र में भाग लिया और अछनेरा के दो भाइयों ने शाही पतंगों को काट दिया था । जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन्होंने अपने तारों पर वही नीला कांच लगाया था जिसका उपयोग वह अपने बर्तनों के लिए करते थे । इससे सवाई राम सिंह द्वितीय प्रभावित हुए और उन्हें अपने कला विद्यालय में चमकीले मिट्टी के बर्तनों की इस अनूठी कला को सिखाने के लिए आमंत्रित किया और इस तरह जयपुर मेें ब्लू पॉटरी की शुरूआत हुई। वहीं लीला बोरडिया के अनुसार महाराजा सवाई राम सिंह ने कालू राम और चूड़ामणि नामक दो कुम्हारों को नीली मिट्टी के बर्तनों की कला सीखने के लिए दिल्ली के कुम्हार भोला के पास भेजा जिन्होंने यह कला ईरान के एक कुम्हार से सीखी थी। 1868 में कालू राम और चूड़ामणि जयपुर वापिस लौट आए और उन्हें महाराजा के कला विद्यालय में प्रशिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया। इन कुम्हारों ने कला की रक्षा तो की परंतु इसे अपनी पीढिय़ों तक ही सीमित रखा और इसी कारणवश 1950 के दशक में नीली मिट्टी के बर्तनों की कला लुप्त हो गयी। कुछ वर्षों के बाद पदम् श्री कृपाल सिंह जी , जिन्हें शांति निकेतन और जापान में एक कलाकार के रूप में प्रशिक्षित किया गया था ,1963 में उन्हें सवाई राम सिंह के शिल्प कला केंद्र के प्रधानाचार्य के रूप में नियुक्त किया गया । नाथी बाई, जिनकी दादी कालू राम और चूड़ामणि के लिए रंग बनाने का काम करती थी, के द्वारा दी गयी जानकारी के आधार पर कृपाल सिंह जी को ज्ञात हो गया कि नीली मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए जिन दो पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता था ,वे क्रमश: तांबे और कोबाल्ट के ऑक्साइड के अलावा और कुछ नहीं थे, और कृपाल सिंह जी के द्वारा किये गए प्रयासों से ब्लू पॉटरी का पुनरुद्धार हुआ।
कच्चा माल

मुख्यत: क्वार्ट्ज,गम अरेेबिका , कांच , मुल्तानी मिट्टी को कच्चे माल के रूप में प्रयोग किया जाता है , जिसे बाद में चक्की में पीस लिया जाता है ।कोबाल्ट ऑक्साइड से प्राप्त नीला रंग ,कॉपर ऑक्साइड से प्राप्त हरा व सफे द रंग , अन्य गैर पारंपरिक रंग जैसे कि पीला व भूरा रंग इस मिट्टी के बर्तनों को सुशोभित करते हैं ।
बनाने की प्रक्रिया

नीली मिट्टी के बर्तनों की मोल्डिंग के लिए आटा मुख्य रूप से पांच सामग्रियों को मिलाकर तैयार किया जाता है जिनका पहले उल्लेख किया जा चुका है। फिर इसे रोल किया जाता है और मोटी चपाती के रूप में चपटा किया जाता है। इसके बाद उसे साचें में डाला जाता है एवं सांचे से बाहर निकले हुए अतिरिक्त आटे को चाकू की मदद से काट दिया जाता है और राख भर दी जाती है। साचें को उल्टा करके हटाने के बाद प्राप्त आटा सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। बर्तनों को साफ करने तथा चमकाने के लिए उन्हें ,रेगमाल से रगड़ा जाता है। उसके बाद बर्तनों पर कारीगरों के द्वारा हाथ से डिजाइन बनाए जाते हैं एवं गिलहरी के बाल से बने ब्रश के द्वारा पेंटिंग की जाती है । डिजाइनिंग व पेंटिंग की प्रक्रिया के बाद गलेजिंग होती है जिसमें गलास ,बोरेक्स और लेड ऑक्साइड की आवश्यकता होती है । इसके बाद बर्तनों को व्यवस्थित रू्रप में भट्टे में डाल दिया जाता है । भट्टे को 8 घंटे के लिए जलाया जाता है जिससे उसका तापमान 800 डिग्री सेंटिग्रेड पहुंच जाता है। उसके बाद ठंडा होने पर बर्तनों को निकाल लिया जाता है ।
चुनोतियां क्या -क्या है?
सबसे पहेली चुनौती तो अन्य प्रकार की मिट्टी के बर्तनो से प्रतिस्पर्धा मौजूद है। इसके अलावा डाई तैयार करने की कोई मानक विधि नहीं है। सिर्फ कुछ ही कुशल कारीगर रंग बनाने व सांचे बनाने की तकनीक जानते हैं। बरसात के मौसम में कारीगरों को और भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि मिट्टी के बर्तनों का सूखना सूरज पर निर्भर होता है। इसके अतिरिक्त ब्लू पॉटरी को खुर्जा पॉटरी से भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है।
दुर्गेश दोराया से हुई बातचीत के कुछ अंश

दुर्गेश जी ने बताया कि कैसे ब्लू पॉटरी अन्य प्रकार की पॉटरी से भिन्न है। ब्लू पॉटरी की कला ही एकमात्र ऐसी तकनीक है जिसमे चिकनी मिट्टी का उपयोग नहीं किया जाता। दुर्गेश जी का कहना है कि जहां एक और ब्लू पॉटरी प्राचीन और मन को मोह लेने वाली कला है वहीं दूसरी और इसके लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है क्योंकि इसमें नुकसान की दर 50 प्रतिशत से भी अधिक है, कोरोना महामारी के दौरान बहुत से कारीगरों ने किसी अन्य रोजगार को अपना लिया। उनका मानना है कि शायद आने वाले दस सालों में ब्लू पोटरी हमें म्यूजियम आदि में देखने को मिलेगी। चूंकि यह संपूर्ण रूप से हस्तकला है इसलिए इसका मूल्य भी दूसरी पॉटरीयों के मुकाबले ज्यादा है, इसके अतिरिक्त इस पर 12 प्रतिशत जीएसटी भी है जो इसके मूल्य में इजाफा करती है जिसके फलस्वरूप आम लोग इसे खरीदने से कतराते हैं।
नीरजा इंटरनेशनल की संस्थापक लीला बोर्डिया से हुई बातचीत

ब्लू पॉटरी को पुनर्जीवित करने में नीरजा इंटरनेशनल की संस्थापक लीला बोर्डिया का बहुत बड़ा हाथ है। लीला जी ने बताया की जब वे 1976 में सोशल वर्क के लिए जयपुर आई तो एक बस्ती में उन्होंने देखा की कुछ लोग एक खास तरह के और खूबसूरत डिज़ाइन को पॉटरी में आकर दे रहे थे , जिसने लीला जी को बहुत आकर्षित किया। उन्होंने उनकी इस कला को आजीविका का रूप देना चाहा और इस तरह से 1978 में , ब्लू पॉटरी को एक मंच के माध्यम से बेचने के लिए उन्होंने नीरजा इंटरनेशनल की स्थापना की। उन्होंने नीली मिट्टी के बर्तनों को मोतियों,हार,पैंडेंट और शरीर की सजावट के लिए उपयोग की जाने वाली अन्य छोटी वस्तुओं तक विस्तारित किया और ऐसा करने वाली वह पहेली महिला थी और भविष्य में भी वह ब्लू पॉटरी में नवाचार करती रहेंगी। उनका मानना है कि ब्लू पॉटरी की हस्तकला आने वाले समय में भी प्रगतिशील रहेगी और इसी तरह दुनिया के हर कोने में अपनी छाप छोड़ेगी। लीला बोर्डिया ने माना है की ब्लू पॉटरी में नुकसान की सम्भावना अधिक रहती है,लेकिन अगर सही अनुपात में सामग्रियों को मिलाया जाये और बनाते वक्त सतर्कता बरती जाए तो नुकसान को काफी हद तक टाला जा सकता है।