नक्कालों से सावधान

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शंका और आशंका के साथ वहम की बारिश होती है। डर लगता है। मारे खौफ के शरीर में सिहरन पैदा हो जाती है। रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सवाल के रूप में सुर लहरियां उमड़ती है..घुमड़ती है..रह-रह के ठाठे मारती है-‘सोचो, वैसा हो गया तो..। जानने वाले जानते हैं कि ‘तो और ‘शक का जवाब हकीम लुकमान के पास भी नहीं। इन सोचों के तार ‘सोचो कभी ऐसा हो तो क्याहो.. से जुड़े हुए। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


शंका के साथ डर और डर के साथ सुर लहरियों के बारे में सुन-पढ कर अटपटा लग रहा होगा। मन में अचकच हो रही होगी। कई प्रश्न उठक-बैठक लगा रहे होंगे। फिर दूर से एक लहर आती है- ‘डर लगे तो गाना गा..। इसके माने जब-जब किसी को किसी का डर लगे तो शुरू हो जाना चाहिए.. ये दोसती हम नही तोडेंगे.. तोडेंगे, दम मगर.. तेरा साथ ना छोडेंगे..। हम ने तो मिसाल भर दी है वरना जिस की जैसी पसंद, वैसे सुर बहा सकता है। इस पर भी विरोधाभास। किसी ने कहा-डर लगे तो गाना गा और हमने संत-सयानों की जुबान से कुछ और ही सुना। किसी ने कहा भगवान का नाम लो, किसी ने कहा-भूत-पिशाच निकट नही आवे.. महावीर जब नाम सुनावे..।

जमा बात ये कि गुनगुनाने से डर कम हो जाता है। यदि मानखा डूब के गाए। मस्त हो के सुर लहरियां बिखेरे तो भूत-पिशाच-खब्बिश-राक्षस का खौफ गायब। पूरा ध्यान गाने में। मन गुनगुनाने में। भूत अंकल साक्षात भी आ जाए तो मगन भा सा को लहरियों मे मगन देख कर उलटे-पांव लौट जाएंगे। इस के माने डर के आगे गीत है.. लिहाजा किसी को शंका.. आशंका और गीत.. गुनगुनाहट पर अचकच होने की जरूरत नही है।


अब सवाल ये कि हकीम लुकमान कौन थे। अपन ने सुना भी और कहा भी- ‘वहम की दवा तो हकीम लुकमान के यहां भी नही मिलती। यह प्रश्न पहले भी उठ चुका है आगे भी उठता रहेगा या नहीं उठेगा इस बात की गारंटी नही है। हम बात करते हैं कल की और खबर नही पल की। आने वाले पल में क्या हो जाए, कोई कुछ नही कह सकता है। हकीम लुकमान का दवाखाना कहां था अथवा है।

वो खानदानी हकीम थे या झोलाछाप। वो पढाई करके हकीम बने या टीपटाप के। वो यूनानी दवाखाना चलाते थे या आयुर्वेदिक। सवाल भतेरे-जवाब किसी के पास नहीं। इसके माने लुकमान हकीम मात्र एक कल्पना। एक काल्पनिक किरदार। इस पर भी सवाल ये कि जिस बंदे ने कल्पना की उसने लुकमान को ही क्यूं चुना। वो वहीद हकीम कह सकते थे। हकीम रशीद लिख सकते थे। हकीम हुकमचंद बना सकते थे। हकीम वासु लिख सकते थे। भतेरे नामों में से सिर्फ लुकमान को चुनने से जाहिर होता है कि इस नाम में कुछ तो था। क्या था-वो जाणे। हमने जैसा सुना-वैसा परोस दिया। यह पुरसगारी आगे भी चलती रहेगी।


बात करें शंका-आशंका और वहम की, तो ये सब मन-दिमाग की उपज है। शंका कभी सही साबित हो जाती है, कभी निर्मूल। वहम तो पालना ‘इज नहीं मगर दिमाग में बैठ जाए तो निकलने का नाम ही नहीं लेता। शक जहर है। वहम विष के समान है मगर मानखे के मन में एक बार बैठ जाए तो निकलने का नाम ही नही लेता। शक का कीड़ा इतना जहरीला होता कि जिंदगी को नरक बना देता है।

मगर हथाईबाज जिस शक-शंका और वहम की बात कर रहे हैं वह खोखली नही है। हथाईबाजों के मन में जो सवाल उठ रहे हैं, वो कमजोर नही है। हमने किसी क्षेत्र को नही छोड़ा तो क्या गारंटी कि इस क्षेत्र को भी छोड़ देंगे। हमें तो वहम है कि कमीने लोग सिद्ध नजर गड़ाए बैठे होंगे कि कब कोई क्लू हाथ लगे और कब अपनी कमिणायत शुरू करें। हो सकता है शुरू कर भी दी हो। जैसे ही असली मार्केट में आया वैसे ही नकली भी कूद पड़ेगा। जब काळ्यो कूद सकता है तो नकली और डुप्लीकेट क्यूं नहीं। सकता क्या, पड़ चुके हैं। कई बार तो पहचानना मुश्किल हो जाता है असली कौन सी है और नकली कौन सी।


अपने यहां नकली माल बनाने वालों की भरमार है। लगभग प्रत्येक सुट्ठे उत्पाद का नकली ब्रांड मार्केट में उपलब्ध। कई का उसी नाम से तो कई में थोड़ी सी हेरफेर। कई बार असली माल विज्ञापनों तक सीमित रहता है और डुप्लीकेट माल पहले बाजार में आ जाता है। मिर्च-मसालों से लेकर घी-तेल और महंगे-महंगे उत्पादों के डुप्लीकेट बाजार में मिल जाएंगे। कंपनियों के असली मालिक चक्करघिन्नी बन जाते हैं। जीवन रक्षक दवाईयां और प्लाजमा भी नकली। यह तो कमीनेपन की पराकाष्ठा है।

हथाईबाजों का कहना है कि अब शासन-प्रशासन को और ज्यादा सक्रिय-सचेत और सावधान रहने की जरूरत है। कारण ये कि कोरोना किलर वैक्सीन का ट्रायल सब जगह चल रहा है। कुछ देशों में टीके लगाने का काम शुरू भी हो गया है। शंक-आशंका और वहम इस बात का कि लालची लोग कहीं डुप्लीकेट वैक्सीन बाजार में ना उतार दें। ऐसे नामुरादों का कोई भरोसा नहीं। वो लोग पईसों के लिए इंसानों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ भी कर सकते हैं, लिहाजा नक्कालो से सावधान रहने की और ज्यादा जरूरत है। इसमें जरा सी बेपरवाही कोरोना से ज्यादा खतरनाक हो सकती है।