बिलाकड़ा

ऐसा पहली बार नही हुआ। ऐसा आखिरी बार हुआ हो, ऐसा भी नही है। ऐसा पूर्व में भी होता रहा है और सावचेती नही बरती। सजगता पर बेपरवाही की चादर लिपटी रही तो आने वाले कल-कलों में भी ऐसा होता रहेगा। वो तो सॉरी फील कर के इतिश्री कर लेंगे। लेकिन उनकी गलती की सजा जिसे मिली उसे कितनी परेशानियों से जूझना पड़ा, यह भुगतभोगी ही जानता है। कई बार तो गलतीखान-गलतीचंद अपनी गलती मानने की बजाय राग और ही कुछ आलापते सुने जाते हैं। उनके लिए क्या बिल और क्या बिलाकड़ा। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।


गलती हो जाना कोई नया नही है। यह मानवीय प्रवृति है। पहली गलती- किसने कब और किस प्रसंग पे की, इसका तो पता नही। हां, इतना जरूर कह सकते हैं कि इस का इतिहास हजारों-हजार साल पुराना है। इस पर अलग-अलग लोगों के अलग-अलग विचार हैं। विचार हंडरेड परसेंट सही हो, कह नही सकते। विचार रखने की सब को आजादी है। बीच में दो-तीन बार ऐसी अंधेरगर्दी मची थी तब विचार रखने और बोलने की आजादी पर प्रतिबंध लगा वरना क्या द्वापर युग और क्या त्रेता युग। सब में स्वतंत्रता। कई तानाशाह राजों-महाराजों के जमाने में इस आजादी पर खरोंच आई। मुगलिया काल से लेकर फिरंगियों के शासन में तो किसी का खुले तौर पे बोलना ही गुनाह हो गया था। आज जब हमें संविधान ने हर प्रकार की आजादी दे रखी है तो हम उसका दुरूपयोग करने से बाज नही आ रहे। नंगाई को आजादी नही कहा जा सकता।


गलती और गुनाह में फरक है। गलती किसी से भी हो सकती है। भूल-चूक लेनी-देनी। लोग कहते हैं कि कैकयी ने मंथरा की बातों में आकर बहुत बड़ी गलती की। लोग कहते हैं कि उनने रामजी को वनवास भेज कर बहुत बड़ी गलती की। लोग कहते हैं कि रामजी ने सीताजी की अग्नि परीक्षा लेकर बहुत बड़ी गलती की। इस की पलट में कई लोगों का यह कहना है कि ऐसा होना था। कैकयी मंथरा की बातों में ना आकर रामजी को वनवास नही भेजती तो कहानी आगे नही बढती। ना रामजी वनवास जाते ना सीता का हरण होता। न राम-रावण युद्ध होता ना रावण का अंत होता। ना रामजी सीता की परीक्षा लेते ना वो मर्यादापुरूष कहलाते। कुल जमा समय का खेल निराला। समय ने अवतारियों को भी नही छोड़ा, हम-आप तो कंद मूल हैं। गलती क्षम्य है-गुनाह की सजा मिलती है। बशर्ते गुनाह साबित हो जाए। आज का दौर ऐसा कि गुनाहों पर परदा तो फटाक से डाल दिया जाता है-साबित होने या करने में सालों लग जाते है। कचहरियों मे खड़े मुकदमों के पहाड़ इस की मिसाल है।
बच्चे दिन में दस बार गलती करते हैं। हम उन्हें ऐसा ना करने की सीख देते है। कई बार गंदी बात और छी.. कह के समझाते है। भूलवश गलती हो जाती है। अनजाने में हुई गलती तो भगवान भी माफ करते हैं। देश-दुनिया में ऐसा एक बंदा नही जिसने कभी गलती ना की हो।

कई लोग गलती से थोड़ी बड़ी गलती याने कि गलती और गुनाह के बीच हुई गलती को मजाक में ‘गलता कहते हैं, ठीक वैसे हम ने बिल को ‘बिलाकड़ा कह दिया। कहना तो बिलाकड़े से और बड़ा शब्द था पर मिला नहीं। आप को मिल जाए तो उसकी जगह ‘महा लगा के पढ लेना। ‘बिल के अपने ‘बिल हैं। एक बिल के तार सदन से जुड़े हुए और दूसरे भुगतान संबंधी। हम-आप भले ही उन्हें ‘बिल कहें सांप और चूहों के तो सदन है। चूहा सदन-सांप भवन। मानखा जमात इन्हें ‘बिल कहती है। अर्थ और भुगतान संबंधी ‘बिलों की फेहरिस्त खासी लंबी-चौड़ी है।

प्रशासन-शासन-बाजार और उद्योग-उद्यमियों की नींव ही ‘बिल पे टिकी हुई। बिल और इंसान का-बिल और अर्थ व्यवस्था का रिश्ता खासा पुराना और मजबूत है। नए मेहमान के दुनिया में आने के साथ ही बिल शुरू हो जाता है और अंतिम विदाई के बाद लकडिय़ों और अन्य सामान के बिल परिजनों को थमाए जाते हैं। इस बीच बिल ही बिल। दिल का इलाज करवाओ तो बिल-दांत निकलवाओ तो बिल। तनखा का बिल। टीए-डीए का बिल। फोन का बिल। किराणे के सामान का बिल। दूधिए और अखबार वाले का बिल। पानी-बिजली के बिल। ठेकेदारों के बिलों ने कई सरकारी कारिंदों को निहाल कर दिया-कई एसीबी के हत्थे चढे। मेडिकल बिल। शादी-ब्याह के समय इतने बिल आते हैं जिन का भुगतान करने में महिनों लग जाते हैं। बिल ने जब दिल दहला दिया तो उसे हथाईबाजों ने ‘बिलाकड़ा करार दे दिया। ऐसे बिलाकड़े पहले भी जारी हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगे।


हवा उदयपुर जिले के सलूंबर उपखंड के गीगला कस्बे से आई। वहां बाइक सर्विस सेंटर चलाने वाले एक मिस्त्री को बिजली विभाग ने तीन करोड़ इकहत्तर लाख का बिल भेज दिया। इकसठ हजार पांच सौ सात रूपए ऊपर। पूरे उपखंड क्षेत्र के विद्युत उपभोक्ताओं को मिला लें तो भी इतना बिल नही बनता होगा जितना मिस्त्रीजी को भेजा। आप अंदाज लगा लीजिए कि पौने चार लाख के बिल को देख कर उपभोक्ता पर क्या बीती होगी। हांलांकि बाद में विभाग ने अपनी गलती मान कर संशोधित बिल जारी कर दिया तब तक बिल के ‘बिलाकड़े का लोकार्पण हो चुका था।