
हमें पता है कि कुछ होणा-जाणा तो है नहीं, पर देणे में हर्ज ही क्या है। दे ही तो रहे हैं, किसी से कुछ ले तो नही रहे। किसी से कुछ मांग तो नही रहे। जिस को उचित लगे ले ले.. जिसको ना जंचें, ना ले। हम जबरदस्ती तो कर नही रहे पर इतना जरूर कह सकते हैं कि कोई हमारी सलाह माने या ना माने। गौर करने वाले करेंगे जरूर, करना भी चाहिए वरना डी लाल और लाल होते जाएंगे। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
होना-जाना और लेने-देने पर पत्रवाचन से पहले जबरदस्ती पर चर्चा करनी जरूरी है। ऐसा नही करे तो भी चलेगा, कारण ये कि इस के बारे में हर कोई जानता है। बच्चों या युवकों की एक्सट्रा क्लास लेकर उन्हें जबरदस्ती के बारे में बताया जाए तो विद्यार्थी हसेंगे-मुळकेंगे। खुदी कहेंगे-सर, हमारा यहां आना ही पाठ का पूरा अर्थ है। इसके माने हम एक्सट्रा क्लास में आना ही नही चाहते थे। कई तो क्लास भी अटेंड नही करते उनके लिए अतिरिक्त क्लास अटेंड करना बहुत बड़ी बात है। आप जबरदस्ती बुला रहे हो, यह प्रेक्टिकल हैं। जब प्रयोग द्वारा सिद्ध हो रहा है तो रट्टा मारने से क्या फायदा। इसके बावजूद बताना इसलिए जरूरी ताकि कोई हथाईपंथियों की ज्ञान गंगा को छोटी समझने की गुस्ताखी ना कर सके।
जबरदस्ती के माने किसी कार्य को जबरन करना अथवा करवाना। किसी की गुद्दी पकड़ के वो काम करवाना जिसे करना नही चाहता-जबरदस्ती कहलाता है। ऐसा करना समाज और कानून के खिलाफ हैं, मगर हो रहा है। धड़ल्ले से हो रहा है।
पकड़ में आए वो चोर वरना जैसा चलता आया है वैसा ही चलता रहणा है। आप एक बात बताइए, जब भारत आजाद हुआ उस वक्त जनसंख्या कित्ती थी। शायद चालीस करोड़। पचास-साठ करोड़ और महापुरूष कितने थे। भतेरे। फलां नंद जी। फलां स्वामी जी। ढिमका सिंह जी। ढिमका खान साहब। बड्डे-बड्डे सिद्ध पुरूष थे। बड्डे-बड्डे संत-महात्मा थे। पहुंचे हुए ज्ञानी-ध्यानी थे। एक से बढ कर एक विद्वान थे। वो जन मुट्ठी भर लोगों को नही सुधार सके। उन महापुरूषों के सामने चालीस-पचास करोड़ लोग मुट्ठी भर के ही समान थे। जब वो चिमटी भर लोगों को नही सुधार सके।
जब वो लोग मुट्ठी भर लोगों को लाइन पे नही ला सके अब तो उसकी कल्पना करना ही बेमानी है। जन संख्या हो गई एक सौ तीस करोड़ प्लस और ज्ञानियों-ध्यानियों की संख्या अंगुलियों पे गिने जित्ती। फिर भी इस बात की खुशी है कि वो ज्ञानी-ध्यानी हमें सुधारने के ईमानदारी से प्रयास कर रहे हैं। हमीं सुधरना ना चाहे तो कौन-क्या कर सकता है। ऐसे में एक ज्ञानीजन का उवाच आंखों के सामने घूमता है-‘हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा। सुधरने की गोली नही आती। सुधरने का इंजेक्शन नही ठुकता। सुधरने का कैप्सूल नहीं आता। सुधरने की पीने की दवा नही आती। ऐसे में आशा की सिर्फ एक किरण नजर आती है, जिसे हम कई दीवारों पर पढ चुके हैं। फ्लैक्स-बैनर्स पर देख चुके है-‘हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा। घोर कलयुग में कोई सुधरना ही नही चाहे तो कौन क्या कर सकता है। जबरदस्ती करने से भी कोई फायदा नही। बात घूमा-फिरा के जबरदस्ती पे इसलिए लाए ताकि फिर कहे सकें कि किसी काम को जबरन करना अथवा करवाना जबरदस्ती की श्रेणी में आता है। हम जो दे रहे हैं वो एच्छिक। चाहो तो ले ल्यो-नितर मति ल्यो। किसी पे कोई दबाव नहीं। कोई हमारा दबेलदार नहीं।
हथाईबाज वही कर रहे हैं जो इन दिनों हर कोई कर रहा है याने कि ‘सलाह की पुरसगारी। जिसे देखोवो सलाह देने में व्यस्त। कोई ना मांगे तो भी देने को आतुर। नहीं.. नही.. भाई.. ये तो लेनी पड़ेगी। कुछ प्रोफेशनल भले ही सलाह देने की कीमत वसूलते हों। यहां फ्री में। एकदम फोकट में। एक क्या दो-चार ल्यो। दस-बीस ल्यो। कट्टा भर के ल्यो। बोरी भर के ल्यो। खुद की औलाद भले ही ना माने पर, पड़ोसी को देने में तनिक भी मुंजीपना नहीें। लेसमात्र भी कंजूसी नहीं।
हमारी सलाह यह कि शासन-प्रशासन को दलालों की भरती शुरू कर देनी चाहिए। चाहे तो परीक्षा के जरिए-चाहे तो सीधी भरती। जैसे निजी दलाल होते हैं-वैसे सरकारी क्यूं नहीं। यह सलाह देने की जरूरत इसलिए पड़ी कि शासन-प्रशासन में पिछले लंबे समय से हर कार्य दलालों के मार्फत ही हो रहे है। कई लोग इसे जरिया कहते हैं-कई लोग मध्यस्थ। कई लोग एजेंट कहते हैं-कई खासम-खास। उन्हें सेवा शुल्क दो और काम करवा लो। पिछले दिनों विभिन्न विभागों में पकड़े गए घूसखोरी के मामलों से यह बात और पुख्ता हो गई कि काम करवाने वालों और करने वालों के बीच एक मध्यस्थ, जिसके जरिए लेन-देन होता है। आम भाषा में उसे दलाल कहते हैं।
पता है कि हमारी सलाह किसी के गले उतरने वाली नहीं, तो उसका क्या। हम फीस तो ले नही रहे। जंचे तो दलाल भरती परीक्षा शुरू कर दो-नितर तुम तुम्हारे-हम हमारे। ऐसा हो जाए तो भाई सेण अपने नाम के आगे या नीचे ‘बड़े शान के साथ डी लाल उकेर सकेंगे।