कांगरेस पीपी

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हाल-हूलिया नहीं बदला तो हालत और ज्यादा खस्ता हो जाणी है। इसको अगर यूं कहें अब भी नहीं संभले तो जाने वाले जाते रहेंगे, तो भी गलत नहीं। अगर यूं कहें कि समय के साथ चलो वरना गिनती के रह जाओगे, तो भी अतिश्योक्ति नहीं। तीनों का अर्थ-भावार्थ एक ‘इज। कान इस हाथ से पकड़ो या उस हाथ से। यूं पकड़ो या यूं-कोई फरक नहीं पडऩे वाला। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।

बदलने या ना बदलने को लेकर दो धाराएं फूटती दिखाई देती है। कहीं-कहीं बहाव भी नजर आता है। कई चीजें कभी नहीं बदलती-कई वस्तुएं हर रोज बदलती हैं। इसपे चर्चा बाद में पहले बात जमाने की। हमने भतेरों की जुबान से सुना-‘जमाना बदल गया है। कई लोग ‘गया है की जगह ‘रहा है का उपयोग करते हैं। तो हुआ-‘जमाना बदल रहा है।

हमें उनके वक्तव्य पर आपत्ति। हमें उनकी सोच पर एतराज। हमारी आपत्ति किसी को स्वीकार हो या ना हो, यह अलग बात है। आपत्ति दर्ज करवाना हमारा अधिकार है और हमें अपने हक-ओ-हुकूक की रक्षा करना भी आता है और उपयोग करना भी। खुद शासन-प्रशासन कई मसलो-मुद्दों पे आपत्तियां आमंत्रित करता हैं।

देग के चावल के रूप में मतदाता सूचियों को ही ले ल्यो। सूचियों का फाइनल प्रकाशन होने से पहले आपत्तियां-एतराज मांगे जाते हैं। सूचियों का या तो पठन होता है या फिर अवलोकन के लिए किसी नीयत स्थान पर रखवा दी जाती हैं। यदि किसी को कोई एतराज हो-आपत्ति हो तो उस पर सुनवाई की जाती है। एतराज जायज हो-आपत्ति उचित हो, तो उसे स्वीकार कर निवारण किया जाता है, उस के बाद सूचियों का अंतिम प्रकाशन होता है।

कोई आपत्ति दर्ज ना करवाए तो बात कुछ और है वरना एतराज आमंत्रित करने का प्रावधान तो है। यदि जायज आपत्ति पे कार्रवाई ना हो तो ऊपर के दरवाजे खटखटाए जा सकते है। कानून के दरवाजे सब के लिए खुले हैं। जहां ना आपत्तियां मांगी जाए ना एतराज और ना किसी की सुनवाई हो, वहां वही होणा है-वैसा ही होणा है, जैसा वहां हो रहा है। अब भी अगर नहीं चेते तो गिणे-चुणे रह जाणे है।

हथाईबाजों को जमाने के बदलाव पर घोर एतराज। उनका कहना है कि जो पहले होता रहा है वही आज भी हो रहा है, फिर कैसा बदलाव। सूरज कल भी आग उगलता था-आज भी उगल रहा है। चंद्रमा कल भी शीतल चांदनी बिखेरता था, आज भी बिखेर रहा है। मिर्च कल भी चरकी हुआ करती थी, आज भी तीखी है। शक्कर कल भी मीठी होती थी, आज भी वही स्वाद है। मिर्चीबड़ा कल भी मिर्ची-आलू से बनता था-आज मिर्ची की जगह भिंडी से नहीं बनता। सही तो यह है कि लोगों की सोच बदल गई है। लोगों की नजर और नजरिया बदल गया है। लोगों ने विचार और विचारधारा में परिवर्तन आ रहा है। इन सब को जमाने पे लादना ठीक नहीं है।

दूसरी धारा कहती हैं कि समय के साथ बदलना ही बुद्धिमानी की निशानी है। एक जमाना वो था तब हमारे पुरखे स्याही-होल्डर का इस्तेमाल करते थे। बहियों में लिखा पढी होती थी-आज कंप्यूटर में फाइलें तैयार हो रही हैं। एक जमाने में हमें दूर बैठे अपने रिश्तेदार से बात करने के लिए ‘ट्रंक कॉल बुक करवा के इंतजार करना पड़ता था, आज घर बैठे सात समंदर पार रह रहे लोगों से सीधी बात हो रही है- वह भी लाइव। जो समय के साथ चलता-बदलता है वह मीर और जो नहीं चलता-बदलता, वो पुरातत्व के स्मारक जैसा होने की ओर अग्रसित। आशंका है कि कांगरेस की गत भी वैसी ना हो जाए।

देश की सबसे पुरानी पारटी कांगरेस की जो गत हो रही है, उसे आखा देश देख रहा है। हथाईबाजों ने पारटी को परिवार के चंगुल से निकालने की सलाह कई बार दी। खुद पारटी के भीतर चेहरे-मोहरे बदलने के गुबार फूटते रहे हैं मगर किसी की कोई सुणवाई नहीं। ले दे के मैं और मेरा गीगला। अब गीगली भी लाइन में। अम्मा पद छोड़े तो पुत्तर की झोली में रेवड़ी और पुत्तर हटे तो अम्माराज। लोग बोर हो गए। खुद कांगरेसी एक परिवार को ढोते-ढोते उकता गए। कई ने दूसरा घर कर लिया। कई सीनियर्स बागी तेवर में। कई बाहर निकलने के लिए छटपटा रहे हैं। जिस दिन तेवड़ लेंगे माधवराज सिंधिया-जतिनप्रसाद बन जाएंगे।

हथाईबाजों के साथ कांगरेस के हमदर्दों का अब भी यही कहना है कि पारटी की कमान नेहरू गांधी कुनबे के इत्तर किसी वरिष्ठ नेता को सौंप देनी चाहिए या फिर आलाकमान अपना घमंड-गुरूर छोड़कर आम नेता-कार्यकर्ता की सुने। उनके लिए दरवाजे खुले रखें। ऐसा नहीं हुआ तो गत और बिगड़ जाणी है। आज जतिन गए कल किसी और की बारी आ सकती है। ऐसा ना हो कि आलाकमान के घमंड-गुरू र के कारण कांरगेस पच्चीस-पचास में सिमट कर रह जाए। पच्चीस-पचास सीहें नहीं-नेता और कार्यकर्ता। शॉर्ट में कहे तो कांगरेस-‘पीपी।

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