शुद्ध लिखना और शुद्ध उच्चारित करना भी स्वाध्याय का महत्त्वपूर्ण अंग : आचार्यश्री महाश्रमण

आचार्यश्री महाश्रमण
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पर्वाधिराज पर्युषण : दूसरा दिन स्वाध्याय दिवस के रूप में हुआ समायोजित

विशेष प्रतिनिधि, छापर (चूरू)। धर्म के महापर्व पर्युषण पर्वाधिराज का प्रारम्भ हो चुका है। इस महापर्व में जन-जन अपनी आत्मा को अध्यात्म की दिशा में ले जाने के लिए ध्यान, स्वाध्याय, जप, उपवास आदि धार्मिक कार्यों में संलग्न हो जाते हैं। यह महापर्व राजस्थान के चूरू जिले में स्थित छापर कस्बे में भी आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में भव्य रूप में समायोजित हो रहा है। इस महापर्व को गुरुचरणों में मनाने के लिए देश-विदेश से श्रद्धालुजन उपस्थित हैं। गुरुवार को पर्युषण पर्वाधिराज के दूसरे दिन के मुख्य कार्यक्रम का शुभारम्भ भी तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी के नमस्कार महामंत्र से हुआ। आचार्यश्री महाश्रमणजी ने उपस्थित जनता को ज्ञान का आलोक बांटते हुए कहा कि आज पर्वाधिराज पर्युषण का दूसरा दिन है।

तीर्थंकर हमारी आत्मा और साधना के आधार

आचार्यश्री महाश्रमण
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आत्मवाद, क्रियावाद, कर्मवाद, लोकवाद आदि के वर्णन के साथ दस धर्मों का भी वर्णन हो रहा है। हमारे तीर्थ और तीर्थंकर हमारी आत्मा और साधना के आधार हैं। जैन दर्शन में सबसे महत्त्वपूर्ण है आत्मवाद। आत्मा आदि काल से है और आगे भी अनादि काल तक रहेगी। आत्मा के आदि और अंत का कोई छोर नहीं है। हम सभी की आत्माएं न जाने कितनी बार जन्म-मरण को प्राप्त कर चुकी हैं। आत्मा विशालकाय हाथी में फैल जाती है और एक अत्यंत छोटे जीव कुंथु में भी समाविष्ट हो जाती है।

हम सभी को आत्मा से सामंजस्य स्थापित करने की प्रेरणा लेनी चाहिए। नियमानुसार एक ठाणे में कम से कम दो साधु और साध्वियों के साध्वियों के एक ठाणे में कम से कम तीन साध्वियां होनी चाहिए। अब यदि एक ठाणे में यदि कोई भी साधु अथवा साध्वी आ जाए तो उसके साथ भी सामंजस्य बनाए रखने का प्रयास किया जाना चाहिए। यदि कोई विपरित प्रकृति वाला भी आए तो उसके साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास होना चाहिए। उसकी प्रवृति नहीं संघ की संस्कृति का ध्यान रखनी चाहिए।

उदार भाव का विकास हो तो सामंजस्य बिठाया जा सकता है। आचार्यश्री ने ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्राÓ का शुभारम्भ करते हुए कहा कि जम्बूद्वीप के पश्चिमी भाग में जयंती नाम की एक नगरी थी। जिसमें एक गांव का अधिकारी था नयसार। उसे राजाज्ञा मिली कि लकडिय़ां लानी है। वह जंगल गया और लकडिय़ां काटने लगा। दोपहर में भूख लगी और वह भोजन को बैठा कि उसी समय साधु उधर आ गए। उसने साधुओं को भोजन का दान दिया और उन्हें मार्ग दिखाने के लिए चल पड़ा। नयसार को साधुओं से ज्ञान मिला और उसे सम्यक्तव की प्राप्ति हो गई। सम्यक्त्व की प्राप्ति ही नहीं हुई साथ ही यथार्थ के प्रति श्रद्धा भी हो गई।

ज्ञान का कंठस्थ होना महत्त्वपूर्ण

आचार्यश्री ने स्वाध्याय दिवस के संदर्भ में कहा कि स्वाध्याय ज्ञान की वृद्धि का सशक्त माध्यम है। ज्ञान का कंठस्थ होना बहुत महत्त्वपूर्ण बात होती है। ज्ञान को कंठस्थ करने के साथ-साथ उसके उच्चारण की शुद्धता और लेखनी की शुद्धता का ध्यान देने का प्रयास होना चाहिए। हश्र्व, दीर्घ, अनुस्वार, विसर्ग कहां लगाना और कहां नहीं लगाने का ध्यान होना चाहिए। उच्चारण और लेखन की शुद्धता स्वाध्याय का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। आदमी को अपने ज्ञान को पुष्ट बनाने का प्रयास करना चाहिए। आगम का स्वाध्याय साधु की आत्मा के लिए एक खुराक होती है।

स्वाध्याय ज्ञान की वृद्धि के साथ संयम जीवन को अमृतमयी सिंचन भी प्रदान करने वाली होती है। चितारना करने से कंठस्थ ज्ञान परिपक्व हो सकता है। पर्युषण पर्वाधिराज का दूसरा दिवस स्वाध्याय दिवस के रूप में समायोजित हुआ। मुनि ध्रुवकुमारजी ने तीर्थ और तीर्थंकर के विषय में बताया और उस संदर्भ में गीत का भी संगान किया। साध्वीवर्या साध्वी सम्बुद्धयशाजी ने मुक्ति धर्म के संदर्भ में ‘धर्म का मुक्ति दूसरा द्वारÓ गीत का संगान किया। मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने क्षांति और मुक्ति धर्म की व्याख्या की। साध्वी ख्यातयशाजी ने ‘स्वाध्याय दिवसÓ के संदर्भ में गीत का संगान किया। साध्वीप्रमुखा साध्वी विश्रुतविभाजी ने ‘स्वाध्याय दिवसÓ के संदर्भ में लोगों को उद्बोधित करते हुए स्वाध्याय के पांच प्रकारों का वर्णन किया।

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