सम्राट् विक्रमादित्य और जैन धर्म

भारतीय काल गणना में विक्रम संवत् एक बहुप्रचलित संवत् है। भारतवर्ष के प्रतापी सम्राट् विक्रमादित्य ने इस संवत् का प्रवर्तन किया था। विक्रम संवत् का प्रवर्तन भगवान महावीर निर्वाण संवत् के 470 वर्ष बाद तथा ईस्वी सन् से 57 वर्ष पूर्व हुआ था। भारत में ग्रेगारियन कैलेंडर के साथ शक संवत् और विक्रम संवत् का प्रयोग भी किया जाता है। नेपाल में भी सरकारी कैलेंडर के रूप में विक्रम संवत् का प्रयोग किया जाता है। भारत के संविधान की प्रस्तावना के हिंदी रूपांतरण में, संविधान को अपनाने की तारीख 26 नवम्बर, 1949 विक्रम संवत् में ही है। यह एक चंद्र कैलेंडर है। इसमें समय के लिए चंद्रमास और नक्षत्र वर्ष का प्रयोग किया जाता है। अन्य अनेक संवतों के बीच विक्रम संवत् की लोकप्रियता और व्यापक स्वीकार्यता के अनेक कारण हैं। इसमें एक कारण राजा विक्रमादित्य का न्यायप्रिय, उदार और उपकारी व्यक्तित्व भी है। इतिहासकारों, विद्वानों और साहित्यकारों ने अनेक तथ्यों के आधार पर विक्रमादित्य को जैनधर्मानुयायी सम्राट् बताया है। विक्रमादित्य के महान व्यक्तित्व और उदाश्र व्यवहार में जैन धर्म के सिद्धान्त गुंफित मिलते हैं। वे उदार धार्मिक सहिष्णु सम्राट् थे। सम्राट् विक्रमादित्य का समय वह समय था, जब भारतवर्ष में केवल श्रमण और ब्राह्मण संस्कृतियाँ थीं। दूसरी संस्कृतियों और धर्मों का उदय बहुत बाद में हुआ। प्रागैतिहासिक काल से ही जैन धर्म श्रमण संस्कृति का संवाहक रहा। जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर के समकालीन गौतम बुद्ध से श्रमण संस्कृति की बौद्ध धारा प्रवाहित हुई। बुद्ध अपने आरंभिक साधनाकाल में भगवान पाश्र्वनाथ की परम्परा में दीक्षित हुए थे, तत्पश्चात् उन्होंने स्वतंत्र संघ की स्थापना की।

जैन धर्म में चारों ही वर्णों के व्यक्तियों को योग्यता के आधार पर समान सम्मान मिला। यहाँ तक भगवान महावीर की संघीय व्यवस्था में महिलाओं को भी उच्चतर और सम्मानपूर्ण स्थान मिला। जातीय समानता, स्त्री-पुरुष समानता, वैज्ञानिक तŸवज्ञान और आडम्बरविहीन साधना के फलस्वरूप विशाल भारतवर्ष में जैन धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार और विस्तार था। जैन धर्म जनधर्म के रूप में यशस्वी बना हुआ था तो राजधर्म के रूप में भी समादृत था। ऐसे कालखण्ड में सम्राट् विक्रमादित्य हुए।

विक्रमादित्य एक अत्यन्त पराक्रमी सम्राट् थे। उनके नाम का शुरूआती हिस्सा ‘विक्रमÓ उनके पराक्रम और साहस को इंगित करता है। नाम के पिछले हिस्से ‘आदित्यÓ का अर्थ है, सूर्य; जो उनके यशस्वी और तेजस्वी होने का परिचायक है। जब विदेशी शकों ने उज्जयिनी (अवन्ती) पर अधिकार कर लिया, तब युवा विक्रमादित्य के पास कोई संगठित सेना नहीं थी। अपने पैतृक राज्य पर अधिकार करने के लिये विक्रमादित्य ने वीर मालवों की सहायता से शकों को पराजित किया। मालवों के इस सहयोग के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए विक्रमादित्य ने अवन्ती प्रदेश का नाम मालव रख दिया।
मालवों के साथ मैत्री को अमर बनाने के लिये विक्रमादित्य ने अपने जीवन के 51वें वर्ष में मालव संवत् चलाया। विक्रमादित्य के असीम उपकार और उनकी विपुल कीर्ति के कारण वह संवत् ‘विक्रम संवत्’ के नाम से सम्पूर्ण भारतवर्ष में लोकप्रिय हो गया। विक्रमादित्य की उज्ज्वल कीर्ति के कारण ही चन्द्रगुप्त (द्वितीय) तथा कुछ अन्य पश्चातवर्ती राजाओं ने अपने नाम के साथ ‘विक्रमादित्यÓ की उपाधि लगाई।

विक्रमादित्य के शौर्य, सुशासन, बहुआयामी व्यक्तित्व, धर्मनिष्ठा और सद्गुणों ने सभी परम्परा के लेखकों और कवियों को आकर्षित किया। उनके जीवन के बारे में प्राकृत, संस्कृत, मरुगुर्जर और पुरानी हिन्दी में शताधिक कृतियाँ मिलती हैं। प्राप्त आधी से अधिक कृतियाँ जैन सन्तों और जैन लेखकों द्वारा लिखी हुई मिलती है। विक्रमादित्य के बारे में जैन सन्तों व जैन मनीषियों द्वारा इतने साहित्य की रचना विक्रमादित्य की न्यायप्रियता के साथ उनकी जैन धर्म के प्रति आस्था भी है। आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी जैन मनीषियों ने विक्रमादित्य पर काफी लिखा है। इतिहासकार अगरचन्द नाहटा, डॉ. बनारसीदास जैन, गुजराती उपन्यासकार मोहनलाल चुन्नीलाल धामी, आचार्य देवेन्द्रमुनि, डॉ. सागरमल जैन आदि अनेक जैन लेखकों ने विक्रमादित्य पर लिखा।

प्राचीन साहित्य में जैनाचार्य कालक और जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर के विक्रमादित्य के साथ श्रद्धामय सम्बन्ध के उल्लेख मिलते हैं। सिद्धसेन दिवाकर के उपदेशों से प्रेरणा पाकर विक्रमादित्य ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में मांसाहार, मद्यपान और प्राणियों के वध पर प्रतिबंध लगा दिया था। कुछ जैन पट्टावलियों में भी विक्रमादित्य के उल्लेख मिलते हैं। इतिहासकारों ने उनके अस्तित्व और ऐतिहासिकता को असंदिग्ध बताया है। ‘जैन धर्म का मौलिक इतिहासÓ के दूसरे भाग में आचार्य हस्ती ने विभिन्न स्रोतों से प्राप्त तेरह प्रामाणिक सन्दर्भों से विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता सिद्ध की। विविध साक्ष्यों के आधार पर उन्होंने लिखा कि विक्रमादित्य ने न सिर्फ भारतवर्ष, अपितु अन्य निकटवर्ती और सुदूरवर्ती देशों में भी मानवता की भलाई के अनेक कार्य किये।

विक्रमादित्य ने अपनी सांध्य वेला में पंच परमेष्ठी (अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु) की शरण लेकर महाप्रयाण किया। विक्रम संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य का कालजयी व्यक्तित्व और प्रेरणास्पद कृतित्व मौजूदा शासकों और शासन प्रणालियों के लिए प्रकाशस्तंभ बना हुआ है। दिसम्बर-2016 में भारतीय डाक विभाग ने सम्राट् विक्रमादित्य पर पाँच रुपये मूल्यवर्ग का बहुरंगी स्मारक डाक टिकट जारी किया।

  • डॉ. दिलीप धींग
    (निदेशक: अंतरराष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र)