
सवाल भतेरे, मगर जवाब किसी के पास नहीं। होंगे भी तो खुद के पक्ष के। ताल ठोकी जाएगी कि हम जीते। इधर से यही आवाज-उधर से भी यही आवाज। किसी को कुछ मिला या ना मिला, राज्य के खाते में सबसे लंबी बाड़ेबंदी का रिकॉर्ड जरूर आ गया। इस रिकॉर्ड को कोई तोड़ पाएगा, हमे तो शक है-मगर पक्का नहीं कहा जा सकता। इश्क-जंग और सियासत में कभी भी-कुछ भी हो सकता है। शहर की एक हथाई पर आज उसी के चर्चे हो रहे थे।
इम्तहान के दौरान विद्यार्थी किस अंदाज में सवालों के जवाब देते हैं, उस पर ज्यादा पत्रवाचन करने की जरूरत नहीं। परीक्षा आप ने भी दी होंगी-हम ने भी दी होंगी। दी होंगी क्या यकीनन दी। पढाई में कौन कैसा था-हमसे छुपा नही है। उस जमाने में कहां इतनी प्रतिस्पर्धा थी-कहां इतना कॉम्पिटिशन। सौ में से तैतीस नंबर ले आते तो ऐसे नाचते जैसे मेरिट में आ गए हों। हमारे लिए पास हो जाना या ग्रेस से पास हो जाना भी अहमियत रखता था। उसमें भी मिठाई बांटी जाती थी। किसी के सपलीमेंटरी आ जाती तो नमकीन पक्के। मिठाई पूरक परीक्षा पास करने पर। उस में भी सफलता ना मिले तो कपमेलीमेंटरी का विकल्प खुला। उसमें मिली सफलता भी हमारे लिए बहुत बड़ी मानी जाती थी। यह सीढियां हम जैसे विद्यार्थियों क े लिए वरना पढोकड़े बच्चे फस्र्ट डिवीजन से कम नहीं लाते। कई सैकंड। कई थर्ड। कई पास तो कई हम जैसे। हम कैसे थे उसकी विगत पहले ही बांच दी। आज फस्र्ट-सैंकड डिवीजन मे पास होना कोई मायने नही रखता। होनहारों को नब्बे प्लस चाहिए। इसके लिए वो रात दिन एक करते हैं। स्कूल-एक्स्ट्रा क्लास-ट्यूशन-ऑन लाइन एडवाइज। मेहनत मे कोई कमी नही इसके बावजूद को 80-85 प्रतिशत पे आ जाए तो हफ्ते भर सदमे से उभर नही पाते। अभिभावक हौंसला बंधाते हैं-मिलने वाले अगली बार कसर निकालने की बात कह के हिम्मत बंधवाते हैं। इसके बावजूद कई बच्चे उदासी के घेरे में धीरे धीरे सब कुछ सामान्य फिर अगली क्लास के लिए कमर कसाई। आप की तो पता नही हमने अपने परीक्षा काल में जो टोटका अपनाया वही टोटका आम विद्यार्थी अपनाते रहे हैं। खास और पढोकड़ों के लिए नो टोटका-नो टोना। उनके लिए पूरा परचा निबटाना पहली प्राथमिकता हर सवाल का सही जवाब। इसकी पलट में हम लोग पहले उन सवालों को हल करते जिन के जवाब आते थे। भले ही टूटे-फूटे उत्तर लिखते। उसके बाद दूसरे सवालों की चिंता। चिंता का हल टीपाटीपी। थोडा अगले की कॉपी से टीपा-थोड़ा साइड वाले की कॉपी से। हमें पास से ही संतुष्टि।
हथाईबाज देख रहे हैं कि राज्य में घटे और घट रहे घर के झगड़े में भी वही टोटके आजमाए जा रहे हैं। दोनों बाड़ों के लोग अपने-अपने पट्ठ ठोक रहे हैं। कोई इसे अपनी जीत बता रहा है-कोई अपनी। मगर सच्चाई के एक पलड़े में रिकॉर्ड और दूसरे में खाया-पीया कुछ नहीं-एक गिलास फोडी-बाराने लो। हथाईबाजों ने पिछले एक माह से ज्यादा बखत से राजस्थान में राज कर रही कांगरेस के विधायकों को बाड़े में बंद हुआ देखा। कांगरेस के सामने उसकी मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा ताल ठोकती या विश्वास मत हासिल करने का दबाव डालती तब तो बाड़ाबंदी करना समझ में आता। यहां एक बात साफ कर दें कि हम लोग ना घोड़ामंडी के पक्षधर हैं ना बकरामंडी के। हम बाड़ाबंदी के भी हामी नहीं। क्यूंकि ऐसा दौर चल पड़ा है तो हम-आप के विरोध से कुछ होने वाला नहीं। जब बाड़ों में बंद विधायक ही राजी तो हमारा-आप का विरोध कोई मायने नही रखता। वो तो इसमें भी आनंदित। ऐसे मजे कहां पड़े। ऐसी मस्ती कहां पडी। ऐसे मलगोजे कहां पड़े। जब बकरे खुद बाडों में राहत महसूस करें तो बात ही खतम।
हथाईबाज देख रहे हैं कि इस बाड़ाबंदी में किसी को कुछ नहीं मिला। जहां से शुरू हुए वही आकर परेड थम्म हो गई। ऐसे में भी कोई अपनी जीत माने तो मानें। हमें तो किसी की हार नजर नही आ रही है। हां, जनता जरूर हारी। लोकतंत्र जरूर हारा। हम ने अपना प्रतिनिधि संघर्ष के लिए चुना और वो ‘बाड़ानंदÓ बन गए। लोकतंत्र के पहरूए ही ‘बाड़ाखानÓ बन जाएं तो गरीब-गुरबे की बिसात ही क्या। हां, सब से लंबी बाड़ा पारी खेलने का रिकॉर्ड हमारे खाते में जरूर आ गया। हमने इससे पहले भी बाड़ाबंदी देखी। हम ने अन्य राज्यों से यहां आए विधायकों के लिए बाड़े सजाए। उनकी मेहमानवाजी की। उनकी जोरदार खातिरदारी की। कोई बाड़ाबंदी हफ्ते भर चली कोई दस दिन मगर इस बार हुई बाड़ाबंदी ने इतिहास रच दिया। एक माह से ज्यादा दिनों की बाड़ाबंदी राजस्थान कांगरेस के नाम रही। वह भी घर के ही दो धड़ों की जंग के कारण। घर मे ही डर। घर में ही खौफ। इसके बावजूद किसी को कुछ नही मिला। सिवाय आश्वासन के और सियासत में आश्वासन दिन में 420 दफे दिए जाते हैं। हां, सबसे लंबी बाड़ाबंदी हमारे नाम जरूर लिखिज गई।